मुहम्मद गजनवी

#मुहम्मद_गजनवी - इसका इतिहास पढ़कर आपकी रूह कांप उठेगी
लगातार 3 वर्ष तक सिंध पर घोर अत्याचार करने वाले कासिम का अंत देखकर पश्चिम एशिया के दुस्टो के होंश फ़ाख्ता हो गए । ढाई सौ वर्ष तक उनकी हिम्मत नही हुई, की भारत की तरफ वो नज़र भी उठाकर देख सके । इसके बाद वो पुनः भारतीय सीमा पर पैशाचिक उत्पात मचाने को तैयार हुए ।।


कासिम के अत्याचारों का बदला हिन्दू कन्याओं ने पाई पाई करके चुकाया । " जैसा ओर जहां कहीं भी था " उसे ताजे सांड के चमड़े में सिलकर भारत से दमिश्क की कब्र में पार्सल कर दिया । भारतीय सीमा रक्षक भी पीछे नही रहे । प्रायः सारी भूमि को उन्होंने अपने कब्जे में कर लिया । मगर अपहत स्त्रियों, बच्चो ओर मृत मनुष्यो का एक खूनी चिन्ह भी कासिम अपने पीछे छोड़ गया था ।। इनके जीवित भाई बन्धु ना इधर के रहे , ना उधर के । कोड़े मार मार कर उन्हें तलवार की धार पर मुसलमान बनाया गया । एक ओर वे नए इस्लाम धर्म से घृणा करते थे, तो दूसरी ओर के मूर्ख रूढ़िवादी ठेकेदारों ने उनके हिन्दू धर्म मे वापस लौटने का मार्ग ही बन्द कर दिया । अपने ओर अपने पुरवर्ती भाइयों के बीच एक खाई खोद दी थी । यह भाई मुसलमानी बर्बरता के शिकार थे । इन्हें सहानुभूति ओर सहारे की आवश्यकता थी । पर इन्हें दुत्कार दिया गया । विवश होकर इन्हें भारत के शत्रुओं का पक्ष लेना पड़ा । शत्रुओं की से संख्या और भी अधिक बढ़ गयी । शांतिप्रिय , धर्मभीरु ओर देशभक्त भारतीय लुटेरे हो गए । उन्होंने जिस माँ का दूध पिया था, अब उसी का खून चूसने लगे । जिस धरती पर उन्होंने चलना सीखा था, अब उसी को कुचलने लगे थे ।।
अलप्तगीन के समय ९६१ -९६७ के समय पश्चिम एशिया के दुष्ठ पुनः भारत को लूटने खसोटने लगे । वह खुरासान प्रान्त का शाशक था । यह लोग पहले क्षत्रिय हुआ करते थे ।इस्लाम के जहर ने इनका हिन्दुत्व नष्ठ कर इन्हें मुसलमान बना दिया था । अलप्तगीन के आठ वर्ष के शाशनकाल उसके तुर्की सेनापति सुबुक्तगीन ने सीमा को नोचने, फसल को जलाने , असहाय रोती स्त्रियों का हरण करने, ओर बिलखते बच्चो का हरण करके उन्हें नए मुसलमानी देशों के नए पनपते गुलामो के बाजार में बेचने का भार लिया । तुर्किस्तान के बाद हिन्दू अफगानिस्तान के एक छोटा टुकड़ा धीरे धीरे इस्लाम के पेट मे समा रहा था । इससे पहले इराक़, ईरान ओर अर्बस्थान आदि हिन्दू देश इस्लाम के पेट मे हजम हो चुके थे ।।
पंजाब और अफगानिस्तान के एक भाग के शाशक जयपाल को इस नए शत्रु का सामना करने में कठिनाई हो रही थी । वे सेना के सामने ना आकर चारो ओर लुटेरों की भांति गांव को लूटकर , मंदिरों को बर्बाद कर , असहाय नागरिको का हरण कर खड़ी फसलों को जलाकर अत्याचार के नए उदारहण प्रस्तुत कर रहे थे ।
पिता अपने पुत्रों को गुणवान ओर चरित्रवान बनने की शिक्षा देता है , लेकिन अपने इस्लामी चरित्र के अनुरूप सुबुक्तगीन अपने पुत्र को छोटी अवस्था मे ही लूटमार की शिक्षा दे रहा था ।।
इन अपराधियो को दण्ड देने के लिए जयपाल ने अपनी सेना लामधन भेजी । इधर सुबुक्तगीन गजनी से चला । साथ मे लायक पुत्र महमूद भी था । वह डकैती की शिक्षा में अभी ग्रेजुवेट नही हुआ था । सदा की भांति खानपान का मार्ग बंद कर दिया गया । युद्ध के सभी नियमों को तोड़ दिया गया । कोई नीच उपाय बाकी नही रहा । प्रदेश में जीवन यापन असंभव हो गया । मगर इस बार भयंकर पाला पड़ा था । पाले ने दोनों पक्षो को शांत कर दिया । उन्हें अपने अपने स्थानों में लौटना पड़ा ।

शीतकाल के बाद सुबुक्तगीन ने धूर्तता की । उसका एक प्रतिनिधि मंडल जयपाल के दरबार लाहौर में आया । अपनी कैद में पड़े हिन्दू नागरिको को सता सता कर मारने की धमकी देते हुए उन्होंने जयपाल से युद्ध का हर्जाना मांगा । सुबुक्तगीन की धूर्तता के उत्तर में जयपाल ने इन धूर्त मंडल को सींकचों में बन्द कर दिया ।
दूसरे युद्ध की शुरुवात हो गयी । इसे तो बस एक ज़रा सा बहाना चाहिए था । सुबुक्तगीन की सेना असहाय लामघन के नागरिकों पर टूट पड़ी । दुर्ग खेत खलिहानों को जला दिया गया , ओर सारी संपत्ति झाड़ पोंछकर लूट ली गयी ।
दिल्ली, अजमेर, कन्नौज के राजाओं ने संकट को परखा, जयपाल की सहायता के लिए उन्होंने अपनी सैनिक टुकड़ियां भेजी । जयपाल को कुछ आर्थिक सहायता भी दी गयी । यह सयुंक्त सेना लामघन घाटी की ओर बढ़ी । इस सेना की राजभक्ति बिखरी हई थी । सभी अपना अपना प्लान प्रस्तुत कर रहे थे । उधर सुबुक्तगीन का पुरवर्ती विध्वंस मुँह फाड़े खड़ा था । दोनो ने इस सेना को प्रभावहीन कर रखा था । सुबुक्तगीन की 500 घुड़सवार सेना अत्याचारों की वर्षा कर रही थी । हिन्दू सेना को पीछे हटना पड़ा । पेशावर शत्रुओं के जाल में फंस गया । आज तक हिन्दू पेशावर का उद्धार नही कर सके ।।
मुस्लिम शब्दकोश में फतह का अर्थ है -- निर्धन नागरिको को निचोड़ना । सुबुक्तगीन ने 2000 सेनिको के साथ टेक्स कलेक्टरों को पेशावर में नियुक्त किया । लूट की मीठी जबान है कर-वसूली । मुस्लिम काल मे उस मीठी जुबान की आड़ में कोड़ो से मार मारकर हाथ पैर तोड़े गए , ओर तब उन्हें सिक्को की मधुर आवाज सुनाई दी ।
20 वर्ष तक कर्मठ डाकू का जीवन व्यतीत करने के बाद सुबुक्तगीन मर गया । पाप के दलदल ओर क्रूरता के खूनी कीचड़ में फलता फूलता महमूद अपने बाप को भी झाड़ देता था । इसलिए उसने अपनी वसीयत अपने छोटे बेटे इस्माइलके नाम कर दी । जो दुराचारी महमूद अपने पिता को शाशन करते देख सुलगता रहता था, वह क्या अपने अनुज को गद्दी पर देखकर सिर झुका सकता था ? वह नेशापुर से गजनी चला । इस्माइल बलख से लौटा । भयंकर झड़पें हई । ओर इस्माइल दुर्ग में बंदी बन गया ।
30 वर्ष की उम्र में महमूद अंतरास्ट्रीय चोर दल का नेता हो गया । वह सिर्फ नाम मात्र को ही गजनी राजाओं के अधीन था । चेचक चिन्हों से कुरूप महमूद साधारण ऊंचाई का था । स्त्री और बच्चो के खून से खड्ग रंगने वाला यह क्रूर कसाई एक बार दर्पण में अपना चेहरा देख भयभीत हो उठा । उस दिन से इसने कभी दर्पण में अपना चेहरा नही देखा ।।
साम्प्रदायिक मुस्लिम इतिहासकारों ने इसे साहित्य और कला के महान रक्षक ओर शिल्पी के रूप में चित्रित किया है।।

"गजनी का सुल्तान महमूद " शीर्षक पुस्तक में अलीगढ़ के मुस्लिम यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक ने इस दावे का खण्डन करते हुए लिखा था कि " धन और शक्ति के लोभ से उसने भारत पर धावा बोला था , सुल्तान का जीवन साफ साफ बताता है कि वह चाहे जो भी हो, भले गुणों का आदर्श रूप कदापि नही था । जैसा कि कट्टर मुसलमानो ने उसे चित्रित किया है, उसका नैतिक चरित्र परवर्ती शाशको के समान ही था । ना अच्छा, ना बुरा । शराब, साकी ओर संग्राम में वह उन्ही की श्रेणी का था । तुर्की गुलामो को अपने अधीन रखने के लिए उन्ही के समान अपने अधीन अफसरों से छीना- झपटी करता रहता था । उसकी अनेक अनैतिक संतान थी ।
महमूद के वेतनभोगी इतिहासकार अल बरुनी ने लिखा है -- महमूद ने देश की प्रगति का सत्यानाश कर दिया था । नानी की कहानियों के भांति उसने ऐसे ऐसे चमत्कार दिखाए की हिन्दू चूर-चुर होकर धूल के कणों की भांति चारो ओर बिखर गए । उनके बिखरे हुए टुकडो ने मुसलमानो से घृणा करने की एक ऐसी प्रवर्ति को जन्म दिया है , जो कभी समाप्त नही होगी । इसी कारण जिन प्रदेशो को हमने जीता है उस देशों से बहुत दूर कश्मीर, बनारस आदि के ज्ञान विज्ञान के केंद्रों को वे उठाकर ले गए । राजनीतिक और धार्मिक कारणों से इनमे ओर विदेशियों में बैरभाव बढ़ता ही रहा है ।

हिन्दुओ के प्रति उसकी घृणा के कारण बर्लिन के स्वर्गीय विद्धान डॉ एडवर्ड साचु बतलाते है -- महमूद के लिए सारे हिन्दू काफ़िर है । वे सभी जहन्नुम में भेजने योग्य है, क्यो की वे लूटने से इनकार करते है ।।
प्रो. हबीब के अनुसार महमूद भारत के किसी भी मुस्लिम राजा से अलग नही था । इससे साफ है कि हिन्दू पसीने को पीने ओर हिन्दू धरती पर मोटे होने वाले इन सभी मुसलमान राजाओं ने ( अकबर भी ) हिन्दुओ को इस्लामी जहन्नुम पहुंचाने में कोई भी कोर कसर बाकी नही छोड़ी । किन्तु इसलिए कि सिर्फ इसलिए कि हिन्दू को अपना धन, अपनी प्रतिष्ठा, अपनी स्त्रियों अपना धर्म लुटाना स्वीकार नही था ।।
यह साम्प्रदायिक दावा एकदम झूठा है की महमूद साहित्य और कला का पोषक था । डॉ साचु कहते है - " हांथी के पैरों से कुचलकर मरने से बचने के लिए, अपनी जान लेकर अमर-फिरदोशी को वेश बदलकर भागना पड़ा था ।"

अल- बरुनी की अवस्था भी कोई अच्छी नही थी । महमूद के हाथों वह मसला ना जाये , इसलिए उसे हमेशा चौकन्ना रहना पड़ता था ।इसके अतिरिक्त प्रमाणों को देखकर आप स्वम् अंदाज लगा सकते है , डाकुओं का वह दलपति जिसने जीवन भर सभ्यता और संस्कृति को पैरो से रौंदा है, क्या वह कभी साहित्य और कला का पोषक हो सकता है ? इन विध्वंसकारीयो के चारो ओर खुशामदी ओर चापलूस एकत्रित थे । इनाम के लालच में अत्याचारों ओर अनाचारों को जादुई कविता का जामा पहना दिया , ओर गंगा उल्टी बहने लगी । साम्प्रदायिक मुसलमानो ने तान छेड़ी है, मुस्लिम इतिहास के ये तमाम चापलूस मुस्लिम दरबार में महान कवि और महान इतिहासकार है ।
अरब का खलीफा इस उगते काले सूरज की दोस्ती का बड़ा इक्छुक था । उसने एक पाक-परिधान ओर अनेक उपाधियां इसे भेजी - "सुल्तान आमीन उल मिलमत यमिनुदुलाह " आदि ।

महमूद गजनवी ने प्रतिज्ञा की , की वह हर साल हिन्दुओ पर जिहाद का धार्मिक कुठार चलाएगा । 30 वर्ष की लुटेरी जिंदगी में उसने 19 बार हिन्दुओ पर धावा बोला । तीस बार की कसर उसने 19 बार मे ही निकाल ली । इसलिए यह कथन सत्य है, की उसने अपनी प्रतिज्ञा शत-प्रतिशत पूरी की ।
पहला डाका - दूसरे साल से महमूद ने भारत पर डाका डालने की शुरुवात की । इसके हाथो गुंडागर्दी भी एक कला बन गयी । चोरी, डकैती, लूटमार को अंतरास्ट्रीय स्तर पर पहुंचाने का इनाम इसे अवशय ही मिलना चाहिए ।
1000 ई में विशाल लुटेरे गिरोह ने सिन्दू नदी पार की देहाती नगरों ओर असुरक्षित दुर्गों को लूटकर बंदी स्त्रियों और बच्चो की फौज लेकर वह लौटा । हिन्दू बच्चो को मुस्लिम लूट की शिक्षा देनी थी, ताकि बाद में वह अपने ही भाइयो को मारकर अपनी बहनों की लूट में हाथ बंटा सके । जिस भारतीय प्रदेश को इसने लुटा, वह रेगिस्तान बन गए । खून के दरिया में तैरकर वही जीवित बच पाया, जिसने इस्लाम कबूल कर लिया । सारे हिन्दू मंदिर मस्जिद बन गए ।

इस माल को पचाकर नरभक्षी महमूद 1001- 1002 में पुनः लौटा । इस्लामी सपथ उसे पूरी करनी थी । इस्लामी सपथ उसे पूरी करनी थी । पेशावर से थोड़ी दूरी पर उसने अपना तंबू तान लिया । २८ नवम्बर 1001 को मुस्लिम हमलावरों ओर जयपाल के बीच संघर्ष प्रारम्भ हुआ । हिन्दू सेना के 15 क्षत्रिय राजकुमार नर- राक्षसो के हाथ पड़ गए । समर भूमि में 5000 हिन्दुओ ने वीरगति प्राप्त की । मालूम होता है कि महमदः को यहां निश्चित ओर निर्णायक विजय प्राप्त नही हुई , क्यो की उसे सभी बंदी राजकुमारो को मुक्त कर देना पड़ा । मुसलमानी विध्वंस, अपवित्रीकरण ओर पीड़ामय खतरे से अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के अपनी ईश्वर प्रदत्त कर्तव्य का पालन करने में अपने आप को असफल होता देख पाश्चयताप की पीड़ा से उदास जयपाल ने सच्ची क्षत्रिय परम्परा के अनुसार अपने आप को अग्नि की चिता में समर्पित कर दिया ।।
1005 ई की शरद ऋतु में सिंधु पार कर वह झेलम में भेदा के सामने आया । यहां के राजा विजयपाल ने ना तो कभी सुबुक्तगीन की चिंता की थी, ओर ना ही जयपाल की । सलाम करना तो दूर की बात थी, तीन दिन तक भीषण संग्राम चलता रहा । यह राक्षस दल एक कोने में कसकसा सा गया था । चौथे दिन की सुबह तक परिणाम अनिर्णीत ही रहा था । मरता क्या न करता -- भाग खड़े हुए, ओर सेना की जगह जनता पर हमला बोल दिया । हिन्दू सेना दो भागों में बंट गयी, जनता की रक्षा करें, या इन नरपिशाचों से युद्ध करें । दुस्टो ने सारे क्षत्रिय प्रदेश को कुचल डाला । जो मिले , वे मार दिए गए, या मुसलमान बना दिये गए ।

सफल डाकुओं की भांति यह नयी नयी दिशाओं में ही डाका डाला करता था । शताब्दियों के परिश्रम और पसीने जे जोड़ी हुई कमाई को वह हिन्दुओ से एक ही झटके में छिन लेता । 1005 - 1009 के जाड़े में वह सिंध पर आ टपका । इससे पहले कासिम ने सिंध को अधमरा कर ही दिया था । आधी जनसंख्या को उसने मुसलमान बना ही दिया था । इसबार इस्लामी हमलावर मुल्तान की ओर मुड़े । यहां एक भूतपूर्व हिन्दू दाऊद के नए नाम से गद्दी पर बैठा था । उसने महमूद की 20000 दीनार देकर आर्थिक मदद की ।
1001-02 के पेशावर संग्राम में महमूद ने जयपाल के पौत्र आंनदपाल के पुत्र सुखपाल को बंदी बना लिया था । नियमानुसार मार मार कर इसका भी खतना कर दिया गया था । बाद में भेदा को जीतकर महमूद ने सुखपाल को वहां का शाशक नियुक्त किया, ओर इसका नया नाम शाह रखा । अपने परिवार पर हुए अत्याचारों के कारण सुखपाल इन राक्षसो से बहुत घ्रणा करता था । उसने अपने आप को हिन्दू घोषित कर दिया । महमूद के अफसरों ने सुखपाल को धोखे से बंदी बना , महमूद के सामने पेश कर दिया । डाकुओं की शिष्ठ पंरपरा के अनुसार सुखपाल के पूरे परिवार की स्त्रियों को लूटा गया , धन तो लूटना ही था , ओर जीवन भर सुखपाल को जेल में सड़ा दिया ।।



महमूद के अत्याचारों की कहानी जारी है ------ अगले भाग में महमूद की आनंदपाल से भिड़ंत , ओर महान युद्ध ---

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