तीनों लोकों में आतंक मचाने वाले महिषासुर नाम के दैत्य का जन्म असुरराज रम्भ और एक महिष (भैंस) त्रिहायिणी के संग से हुआ था। रम्भ को जल में रहने वाली महिष से प्रेम हो गया। उनके संयोग से उत्पन्न होने के कारण महिषासुर अपनी इच्छा के अनुसार कभी मनुष्य तो कभी भैंस का रूप ले सकता था ।
महिषासुर राजा बना तो उसने घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनसे अमर होने का वरदान मांगा, जिसे देना संभव न बताते हुए ब्रह्माजी ने उससे कोई अन्य वर मांगने के लिए कहा। तब उसने वर मांगा कि देव, दानव व मानव- इन तीनों में से किसी भी पुरुष द्वारा मेरी मृत्यु न हो सके। स्त्री तो मुझे वैसे भी मार नहीं सकती। वर पा लेने के बाद उसने पृथ्वी को जीत लिया और स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं से वहां का आधिपत्य छीन लिया।डरे हुए देवतागण ब्रह्माजी के पास व शिवजी के पास गए। और फिर वहां से सब मिल कर भगवान विष्णु के पास गए व अपनी रक्षा एवं सहायता की प्रार्थना की। यहीं से देवी के प्रकट होने की कथा आरम्भ होती है । देवताओं ने भगवान विष्णु से पूछा कि ऐसी कौन स्त्री होगी जो दुराचारी महिषासुर को मार सके, तब भगवान विष्णु ने कहा कि यदि सभी देवताओं के तेज से, सबकी शक्ति के अंश से कोई सुंदरी उत्पन्न की जाये, तो वही स्त्री दुष्ट महिषासुर का वध करने में समर्थ होगी। सभी देवतोओं के तेज से ए सुन्दर तथा महतेजस्विनी नारी प्रकट हो गई । सिंह पर सवार, सर्वाभूषणों से सुसज्जित देवी शोभामयी लग रही थी। अब सब देवों ने उन्हें विविध शस्त्र प्रदान किये। इस प्रकार सब आभूषणों से, शस्त्राशस्त्र से सुसज्जित भगवती को देख कर उनकी स्तुति करने लगे एवं उन्हें महिषासुर द्वारा किये गए उपद्रवों के बारे में बता कर उनसे रक्षा की प्रार्थना की । इस पर भगवती ने कहा कि हे देवगण ! भय का त्याग करो, उस मंदमति महिषासुर को मैं नष्ट कर दूंगी ।
देवी ने मंत्रीगणों को कहा की अब तुम उस पापी से जाकर कह दो कि यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताल लोक चले जाओ, अन्यथा मैं बाणों से तुम्हारा शरीर नष्ट -भ्रष्ट करके तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूंगी । इसके बाद देवी और महिषासुर के दैत्यों में घोर युद्द हुआ और देवी ने सभी का वध कर दिया। अंत में महिषासुर स्वयं संग्राम के लिये चला। तब माता नो कहा अब तू मुझसे युद्ध कर या पाताल लोक में जा कर रह, अन्यथा मैं तेरा वध कर दूंगी । देवी द्वारा ऐसा कहने पर वह क्रोधित हो गया और महिष (भैंस) का रूप धारण किया व सींगों से देवी पर प्रहार करने लगा। तब भगवती चण्डिका ने अपने त्रिशूल से उस पर आक्रमण किया। इसके बाद देवी ने सहस्र धार वाला चक्र हाथ में ले कर उस पर छोड़ दिया और महिषासुर का मस्तक काट कर उसे युद्ध भूमि में गिरा दिया। इस प्रकार दैत्यराज महिषासुर का अंत हुआ व भगवती महिषासुरमर्दिनी कहलायीं। देवताओं ने आनंदसूचक जयघोष किया। राजा की मृत्यु से बचे हुए भयभीत दानव अपने प्राण बचा कर पाताल लोक भाग गए। देवी और महिषासुर तथा उसकी सेना के बिच पूरे नौ दिन युद्द चला इसलिए नवरात्रे बनाए जाते है और दशवें दिन महिषासुर का वध कर दिया इसलिए उस दिन विजयादशमी।
पुराणिक कथाओ के अनुसार महिषासुर एक असुर था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से महिषासुर का आगमन हुआ। इसी वज़ह से महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था। संस्कृत में महिष का अर्थ भैंस होता है।
महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता।
महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे। सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये।
कोई उपाय न पाक देवताओं ने उसके विनाश के लिए दुर्गा का आह्वान किया जिसे शक्ति और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।
ये भैंस (भैंसासुर), हाथी ( गजासुर ), वकासुर (बगुला), भ्रमर (भौंरा ), कागासुर (कौवा), सर्पसूर (सांप) ये सब किसी इंसान के पूर्वज कैसे हो सकते है |
अनुवादों को ही मूल भाव मान लिया जाए, तब भी तथ्य कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। आज का महिषासुर निश्चित रूप से मूल नाम न होकर किसी नाम का अपभ्रंश प्रतीत होता है। जैसे त्रेता का ब्राह्मण विद्वान दसग्रिव या दशानन, जिसने ऋषियों द्वारा स्वयं के लिए राम की उपाधि को ठुकरा कर “रमन” (राम का मनन करने वाला) कहलाना स्वीकार किया, जो कालांतर में बिगड़ कर रावण हो गया या जैसे द्वापर के “सुयोधन”, “सुशासन”, और “सुशीला”, बिगड़ी ज़ुबान के कारण दुर्योधन, दुशासन और दु:शिला कहलाए। कालांतर में शायद में महिषासुर के साथ भी यही हुआ। किसी भी अपभ्रंश में तथ्यों और जानकारी की कमी और भावुकता की प्रधानता होती है। आसुरिता या असुरता जो स्वयं किसी शब्द का अपभ्रंश है, दरअसल एक जीवन शैली है, एक जीवन पद्धति है। कोई अपने शरीर की आवश्यकता के अनुसार नर्म शैय्या पर सोना पसंद करता है, कोई भूमि पर सोने को अनिवार्य मानता है। कोई धोती या लुंगी में सहज होता है, तो कोई पैंट या पायजामे को सभ्यता की पोशाक मानता है। इसी प्रकार सभ्यता के विस्तार में कुछ वर्गों ने समाज को सुर और असुर में बांटा। उन्होंने स्वयं को देव और विरोधियों को दानव और असुर बतलाया। मूलतः कला, साहित्य और संगीत से जुड़े लोगों ने तब के तकनीकी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों में सुर, कला और माधुर्य की कमी का उल्लेख करके उन्हें असुर कहा। तब वाहन के रूप में अश्व, उष्ट्र, नंदी, महिष जैसे पशुओं का प्रयोग होता था। महिषासुर का महिष उस शासक के वाहन का भी संकेत हो सकता है।
ऋग्वेद के छठे मंडल के 27वें सूक्त में वरशिखा नामक “असुर” का उल्लेख मिलता है। जिनके नगर का उल्लेख “इरावती” या “हरियूपिय” के रूप में मिलता है, जिसे विद्वान “हड़प्पा” की सभ्यता से जोड़कर देखते हैं। ऋग्वेद में असुरों को मायावी यानि तब के विज्ञान अर्थात् माया शक्ति और तन्त्र शक्ति से समृद्ध माना।
मान्यताएं असुरों को अनुसूरिया या असीरिया यानि सुमेरिया के साथ फ़ारस और इरान के मूल निवासी भी मानती हैं, जो देहवाद, भौतिकवाद और तब के विज्ञान यानि तंत्र का अनुसरण करते थे, जिसके कारण उन्होंने ढेरों समर्थक तो जुटाए पर इसके साथ उन्होंने बहुत विरोधी और आलोचक भी बना लिए। मगर उस काल खंड में वर्ण व्यवस्था नहीं होने से जातियों का प्राकट्य नहीं हुआ था। जाति व्यवस्था तो सभ्यता के विकास के बहुत बाद मनु से उपजी, इसलिए महिषासुर के दलित होने की बात खुद-ब-खुद खारिज हो जाती है। बाद में ब्राह्मण ऋषि पुलस्त्य के दौहित्र और ऋषि विश्रवा का पुत्र “रमन” यानि रावण अपनी वैज्ञानिक और तांत्रिक निष्ठा के साथ भौतिकवाद से लगाव के कारण ही ब्राह्मण जाति होते हुए भी असुर कहलाया। कहीं कहीं मूल निवासियों को आक्रांताओं के प्रत्युत्तर में हिंसक होने के कारण भी असुर कहा गया।
महिषासुर राजा बना तो उसने घोर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर उनसे अमर होने का वरदान मांगा, जिसे देना संभव न बताते हुए ब्रह्माजी ने उससे कोई अन्य वर मांगने के लिए कहा। तब उसने वर मांगा कि देव, दानव व मानव- इन तीनों में से किसी भी पुरुष द्वारा मेरी मृत्यु न हो सके। स्त्री तो मुझे वैसे भी मार नहीं सकती। वर पा लेने के बाद उसने पृथ्वी को जीत लिया और स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं से वहां का आधिपत्य छीन लिया।डरे हुए देवतागण ब्रह्माजी के पास व शिवजी के पास गए। और फिर वहां से सब मिल कर भगवान विष्णु के पास गए व अपनी रक्षा एवं सहायता की प्रार्थना की। यहीं से देवी के प्रकट होने की कथा आरम्भ होती है । देवताओं ने भगवान विष्णु से पूछा कि ऐसी कौन स्त्री होगी जो दुराचारी महिषासुर को मार सके, तब भगवान विष्णु ने कहा कि यदि सभी देवताओं के तेज से, सबकी शक्ति के अंश से कोई सुंदरी उत्पन्न की जाये, तो वही स्त्री दुष्ट महिषासुर का वध करने में समर्थ होगी। सभी देवतोओं के तेज से ए सुन्दर तथा महतेजस्विनी नारी प्रकट हो गई । सिंह पर सवार, सर्वाभूषणों से सुसज्जित देवी शोभामयी लग रही थी। अब सब देवों ने उन्हें विविध शस्त्र प्रदान किये। इस प्रकार सब आभूषणों से, शस्त्राशस्त्र से सुसज्जित भगवती को देख कर उनकी स्तुति करने लगे एवं उन्हें महिषासुर द्वारा किये गए उपद्रवों के बारे में बता कर उनसे रक्षा की प्रार्थना की । इस पर भगवती ने कहा कि हे देवगण ! भय का त्याग करो, उस मंदमति महिषासुर को मैं नष्ट कर दूंगी ।
देवी ने मंत्रीगणों को कहा की अब तुम उस पापी से जाकर कह दो कि यदि तुम जीवित रहना चाहते हो तो तुरंत पाताल लोक चले जाओ, अन्यथा मैं बाणों से तुम्हारा शरीर नष्ट -भ्रष्ट करके तुम्हें यमपुरी पहुंचा दूंगी । इसके बाद देवी और महिषासुर के दैत्यों में घोर युद्द हुआ और देवी ने सभी का वध कर दिया। अंत में महिषासुर स्वयं संग्राम के लिये चला। तब माता नो कहा अब तू मुझसे युद्ध कर या पाताल लोक में जा कर रह, अन्यथा मैं तेरा वध कर दूंगी । देवी द्वारा ऐसा कहने पर वह क्रोधित हो गया और महिष (भैंस) का रूप धारण किया व सींगों से देवी पर प्रहार करने लगा। तब भगवती चण्डिका ने अपने त्रिशूल से उस पर आक्रमण किया। इसके बाद देवी ने सहस्र धार वाला चक्र हाथ में ले कर उस पर छोड़ दिया और महिषासुर का मस्तक काट कर उसे युद्ध भूमि में गिरा दिया। इस प्रकार दैत्यराज महिषासुर का अंत हुआ व भगवती महिषासुरमर्दिनी कहलायीं। देवताओं ने आनंदसूचक जयघोष किया। राजा की मृत्यु से बचे हुए भयभीत दानव अपने प्राण बचा कर पाताल लोक भाग गए। देवी और महिषासुर तथा उसकी सेना के बिच पूरे नौ दिन युद्द चला इसलिए नवरात्रे बनाए जाते है और दशवें दिन महिषासुर का वध कर दिया इसलिए उस दिन विजयादशमी।
पुराणिक कथाओ के अनुसार महिषासुर एक असुर था। महिषासुर के पिता रंभ, असुरों का राजा था जो एक बार जल में रहने वाले एक भैंस से प्रेम कर बैठा और इन्हीं के योग से महिषासुर का आगमन हुआ। इसी वज़ह से महिषासुर इच्छानुसार जब चाहे भैंस और जब चाहे मनुष्य का रूप धारण कर सकता था। संस्कृत में महिष का अर्थ भैंस होता है।
महिषासुर सृष्टिकर्ता ब्रम्हा का महान भक्त था और ब्रम्हा जी ने उन्हें वरदान दिया था कि कोई भी देवता या दानव उसपर विजय प्राप्त नहीं कर सकता।
महिषासुर बाद में स्वर्ग लोक के देवताओं को परेशान करने लगा और पृथ्वी पर भी उत्पात मचाने लगा। उसने स्वर्ग पर एक बार अचानक आक्रमण कर दिया और इंद्र को परास्त कर स्वर्ग पर कब्ज़ा कर लिया तथा सभी देवताओं को वहाँ से खदेड़ दिया। देवगण परेशान होकर त्रिमूर्ति ब्रम्हा, विष्णु और महेश के पास सहायता के लिए पहुँचे। सारे देवताओं ने फिर से मिलकर उसे फिर से परास्त करने के लिए युद्ध किया परंतु वे फिर हार गये।
कोई उपाय न पाक देवताओं ने उसके विनाश के लिए दुर्गा का आह्वान किया जिसे शक्ति और पार्वती के नाम से भी जाना जाता है। देवी दुर्गा ने महिषासुर पर आक्रमण कर उससे नौ दिनों तक युद्ध किया और दसवें दिन उसका वध किया। इसी उपलक्ष्य में हिंदू भक्तगण दस दिनों का त्यौहार दुर्गा पूजा मनाते हैं और दसवें दिन को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। जो बुराई पर अच्छाई का प्रतीक है।
ये भैंस (भैंसासुर), हाथी ( गजासुर ), वकासुर (बगुला), भ्रमर (भौंरा ), कागासुर (कौवा), सर्पसूर (सांप) ये सब किसी इंसान के पूर्वज कैसे हो सकते है |
अनुवादों को ही मूल भाव मान लिया जाए, तब भी तथ्य कुछ और ही कहानी बयां करते हैं। आज का महिषासुर निश्चित रूप से मूल नाम न होकर किसी नाम का अपभ्रंश प्रतीत होता है। जैसे त्रेता का ब्राह्मण विद्वान दसग्रिव या दशानन, जिसने ऋषियों द्वारा स्वयं के लिए राम की उपाधि को ठुकरा कर “रमन” (राम का मनन करने वाला) कहलाना स्वीकार किया, जो कालांतर में बिगड़ कर रावण हो गया या जैसे द्वापर के “सुयोधन”, “सुशासन”, और “सुशीला”, बिगड़ी ज़ुबान के कारण दुर्योधन, दुशासन और दु:शिला कहलाए। कालांतर में शायद में महिषासुर के साथ भी यही हुआ। किसी भी अपभ्रंश में तथ्यों और जानकारी की कमी और भावुकता की प्रधानता होती है। आसुरिता या असुरता जो स्वयं किसी शब्द का अपभ्रंश है, दरअसल एक जीवन शैली है, एक जीवन पद्धति है। कोई अपने शरीर की आवश्यकता के अनुसार नर्म शैय्या पर सोना पसंद करता है, कोई भूमि पर सोने को अनिवार्य मानता है। कोई धोती या लुंगी में सहज होता है, तो कोई पैंट या पायजामे को सभ्यता की पोशाक मानता है। इसी प्रकार सभ्यता के विस्तार में कुछ वर्गों ने समाज को सुर और असुर में बांटा। उन्होंने स्वयं को देव और विरोधियों को दानव और असुर बतलाया। मूलतः कला, साहित्य और संगीत से जुड़े लोगों ने तब के तकनीकी विशेषज्ञों, वैज्ञानिकों और गणितज्ञों में सुर, कला और माधुर्य की कमी का उल्लेख करके उन्हें असुर कहा। तब वाहन के रूप में अश्व, उष्ट्र, नंदी, महिष जैसे पशुओं का प्रयोग होता था। महिषासुर का महिष उस शासक के वाहन का भी संकेत हो सकता है।
ऋग्वेद के छठे मंडल के 27वें सूक्त में वरशिखा नामक “असुर” का उल्लेख मिलता है। जिनके नगर का उल्लेख “इरावती” या “हरियूपिय” के रूप में मिलता है, जिसे विद्वान “हड़प्पा” की सभ्यता से जोड़कर देखते हैं। ऋग्वेद में असुरों को मायावी यानि तब के विज्ञान अर्थात् माया शक्ति और तन्त्र शक्ति से समृद्ध माना।
मान्यताएं असुरों को अनुसूरिया या असीरिया यानि सुमेरिया के साथ फ़ारस और इरान के मूल निवासी भी मानती हैं, जो देहवाद, भौतिकवाद और तब के विज्ञान यानि तंत्र का अनुसरण करते थे, जिसके कारण उन्होंने ढेरों समर्थक तो जुटाए पर इसके साथ उन्होंने बहुत विरोधी और आलोचक भी बना लिए। मगर उस काल खंड में वर्ण व्यवस्था नहीं होने से जातियों का प्राकट्य नहीं हुआ था। जाति व्यवस्था तो सभ्यता के विकास के बहुत बाद मनु से उपजी, इसलिए महिषासुर के दलित होने की बात खुद-ब-खुद खारिज हो जाती है। बाद में ब्राह्मण ऋषि पुलस्त्य के दौहित्र और ऋषि विश्रवा का पुत्र “रमन” यानि रावण अपनी वैज्ञानिक और तांत्रिक निष्ठा के साथ भौतिकवाद से लगाव के कारण ही ब्राह्मण जाति होते हुए भी असुर कहलाया। कहीं कहीं मूल निवासियों को आक्रांताओं के प्रत्युत्तर में हिंसक होने के कारण भी असुर कहा गया।
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