#अद्भुत_वीर_गाथा - अमर सिंह जी और बल्लूजी चाम्पावत
यह एक ऐसा इतिहास है, जिसपर विश्वास करना इस भौतिकवादी समाज के लिए बड़ा कठिन है, राजपूताने का तो सारा इतिहास ही ऐसा रहा है, जिसपर विश्वास नही होता, लेकिन वो सत्य है -: जैसे हाड़ा राणी का धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश दान कर देना हो, या फिर एक मामूली सी सेना लेकर महाराणा प्रताप का नेतृत्व करना हो ।
इसी राजपूताने के इतिहास में दो नाम और है - वीर अमर सिंह और बल्लुचम्पावत
जोधपुर के महाराजा गजसिंह का पुत्र अमरसिंह बचपन से ही बड़े उधमी थे, जैसे आज भी कई बन्नालोग अपनी ही धुन में मस्त रहते है, जो दिल आता है, वो करते है, प्रेम से कोई व्यवहार करें, उसके लिए बिना शर्त जान देने को तैयार रहते है, ओर कोई टेढ़ा बोले, उसकी मरम्मत करने में भी देर नही करते । ऐसे ही अमरसिंह थे । उनके इसी स्वभाव के कारण जोधपुर नरेश ने उनको राजभवन से निष्काषित कर दिया ।।
लेकिन अमरसिंह का अपने समाज ओर राजपुताने में बड़ा प्रभाव था , उनके साथ बल्लूजी चाम्पावत भी हो लिए, यह कह के की इस मुश्किल घड़ी में , अमरसिंह का साथ मे नही छोड़ सकता ।। इनके साथ भावसिंह जी कुम्पावत भी थे, इन तीनो ने सेना इकट्ठी कर शाहजहां के कुछ प्रदेशो पर आक्रमण कर उन्हें जीत लिया !
अमर सिंह को मेंढे लड़ाने का बहुत शोक था, हर समय वो मेंढे ही लड़ाते रहते ! इसी से दुखी होकर बल्लूजी चाम्पावत ओर भावसिंह जी यह कहकर अमरसिंह का साथ छोड़ गए, की अब आपके पास राज्य है, सेना है, सब कुछ है, ओर वैसे भी हम सनातन की पताका फहराने आये है, मेंढे लड़ाने नही । लेकिन जब भी आपको हमारी जरूरत होगी, हम आपके सम्मुख होंगे । अमर सिंहः उन्हें चाहकर भी रोक ना पाए ।
और बल्लू चांपावत महाराणा के पास उदयपुर चले
गए ,वहां भी अन्य सरदारों ने महाराणा से
कहकर उन्हें निहत्थे ही "सिंह" से लड़ा दिया |
सिंह को मारने के बाद बल्लूजी यह कर वहां से
भी चल दिए कि वीरता की परीक्षा दुश्मन से
लड़ाकर लेनी चाहिए थी | जानवर से
लड़ाना वीरता का अपमान है | और उन्होंने
उदयपुर भी छोड़ दिया बाद में महाराणा ने एक
विशेष बलिष्ट घोड़ी बल्लूजी के लिए
भेजी जिससे प्रसन्न होकर बल्लूजी ने वचन
दिया कि जब भी मेवाड़ पर संकट आएगा तो मैं
सहायता के अवश्य आऊंगा |
इधर राजनीतिक कारणों के लिए शाहजहां के दरबार मे अमरसिंह गए हुए थे, वहां राजपूताने ओर धर्म को लेकर शाहजहां के सामन्त ने कटाक्ष किया, अपने धर्म का अपमान अमरसिंह सुन नही पाए, ओर भरी सभा मे उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।। मुगल सैनिक अमरसिंह पर टूट पड़े, लेकिन अमरसिंह ने कई लाशें बिछाने के बाद अपने प्राण त्याग दिए ।।
अब उनकी रानी हाड़ी ने सती होने के लिए
अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए
बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत
को बुलवा भेजा (क्योंकि विपत्ति में
सहायता का वचन उन्ही दोनों वीरों ने
दिया था) | बल्लू चांपावत अमरसिंह का शव
लाने के लिए किसी तरह आगरा के किले में
प्रविष्ट हो वहां रखा शव लेकर अपने घोड़े सहित
आगरे के किले से कूद गए और शव अपने
साथियों को सुपुर्द कर दिया पर खुद बादशाह
के सैनिको को रोकते हुए वीर-गति को प्राप्त हो गए |
वचन कैसे निभाया जाता है, वीरता क्या होती है, यह राजपुताने से पूरा हिन्दू समाज सीख सकता है ।
यह एक ऐसा इतिहास है, जिसपर विश्वास करना इस भौतिकवादी समाज के लिए बड़ा कठिन है, राजपूताने का तो सारा इतिहास ही ऐसा रहा है, जिसपर विश्वास नही होता, लेकिन वो सत्य है -: जैसे हाड़ा राणी का धर्म की रक्षा के लिए अपना शीश दान कर देना हो, या फिर एक मामूली सी सेना लेकर महाराणा प्रताप का नेतृत्व करना हो ।
इसी राजपूताने के इतिहास में दो नाम और है - वीर अमर सिंह और बल्लुचम्पावत
जोधपुर के महाराजा गजसिंह का पुत्र अमरसिंह बचपन से ही बड़े उधमी थे, जैसे आज भी कई बन्नालोग अपनी ही धुन में मस्त रहते है, जो दिल आता है, वो करते है, प्रेम से कोई व्यवहार करें, उसके लिए बिना शर्त जान देने को तैयार रहते है, ओर कोई टेढ़ा बोले, उसकी मरम्मत करने में भी देर नही करते । ऐसे ही अमरसिंह थे । उनके इसी स्वभाव के कारण जोधपुर नरेश ने उनको राजभवन से निष्काषित कर दिया ।।
लेकिन अमरसिंह का अपने समाज ओर राजपुताने में बड़ा प्रभाव था , उनके साथ बल्लूजी चाम्पावत भी हो लिए, यह कह के की इस मुश्किल घड़ी में , अमरसिंह का साथ मे नही छोड़ सकता ।। इनके साथ भावसिंह जी कुम्पावत भी थे, इन तीनो ने सेना इकट्ठी कर शाहजहां के कुछ प्रदेशो पर आक्रमण कर उन्हें जीत लिया !
अमर सिंह को मेंढे लड़ाने का बहुत शोक था, हर समय वो मेंढे ही लड़ाते रहते ! इसी से दुखी होकर बल्लूजी चाम्पावत ओर भावसिंह जी यह कहकर अमरसिंह का साथ छोड़ गए, की अब आपके पास राज्य है, सेना है, सब कुछ है, ओर वैसे भी हम सनातन की पताका फहराने आये है, मेंढे लड़ाने नही । लेकिन जब भी आपको हमारी जरूरत होगी, हम आपके सम्मुख होंगे । अमर सिंहः उन्हें चाहकर भी रोक ना पाए ।
और बल्लू चांपावत महाराणा के पास उदयपुर चले
गए ,वहां भी अन्य सरदारों ने महाराणा से
कहकर उन्हें निहत्थे ही "सिंह" से लड़ा दिया |
सिंह को मारने के बाद बल्लूजी यह कर वहां से
भी चल दिए कि वीरता की परीक्षा दुश्मन से
लड़ाकर लेनी चाहिए थी | जानवर से
लड़ाना वीरता का अपमान है | और उन्होंने
उदयपुर भी छोड़ दिया बाद में महाराणा ने एक
विशेष बलिष्ट घोड़ी बल्लूजी के लिए
भेजी जिससे प्रसन्न होकर बल्लूजी ने वचन
दिया कि जब भी मेवाड़ पर संकट आएगा तो मैं
सहायता के अवश्य आऊंगा |
इधर राजनीतिक कारणों के लिए शाहजहां के दरबार मे अमरसिंह गए हुए थे, वहां राजपूताने ओर धर्म को लेकर शाहजहां के सामन्त ने कटाक्ष किया, अपने धर्म का अपमान अमरसिंह सुन नही पाए, ओर भरी सभा मे उसका सिर धड़ से अलग कर दिया ।। मुगल सैनिक अमरसिंह पर टूट पड़े, लेकिन अमरसिंह ने कई लाशें बिछाने के बाद अपने प्राण त्याग दिए ।।
अब उनकी रानी हाड़ी ने सती होने के लिए
अमरसिंह का शव आगरे के किले से लाने के लिए
बल्लू चांपावत व भावसिंह कुंपावत
को बुलवा भेजा (क्योंकि विपत्ति में
सहायता का वचन उन्ही दोनों वीरों ने
दिया था) | बल्लू चांपावत अमरसिंह का शव
लाने के लिए किसी तरह आगरा के किले में
प्रविष्ट हो वहां रखा शव लेकर अपने घोड़े सहित
आगरे के किले से कूद गए और शव अपने
साथियों को सुपुर्द कर दिया पर खुद बादशाह
के सैनिको को रोकते हुए वीर-गति को प्राप्त हो गए |
वचन कैसे निभाया जाता है, वीरता क्या होती है, यह राजपुताने से पूरा हिन्दू समाज सीख सकता है ।
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