सबसे पहले तो आज भीमटो ओर अन्य वामपंथी लोगो के नास्तिक शब्द का विश्लेषण ही कर लेते है - देखते है यह किंतने ज्ञानी है, जो खुद को " नास्तिक " कहकर टेढ़े हुए घूमते है ।।
Gnostic ( नास्तिक ) यह पूरा का पूरा मूल संस्कृत शब्द ही है । ईश्वर में विश्वास रखने वालों के लिए आधुनिक संस्कृत में आस्तिक शब्द का प्रयोग हुआ है । ओर नास्तिक शब्द उनके लिए, जो ईश्वर में विश्वास नही रखते । लेकिन सही संस्कृत शब्द अगर देखे तो नास्तिक मतलब ईश्वर में विश्वास रखने वाला होता है , ओर जो ईश्वर में विश्वास नही रखते, उसे A-gnostic यानी "अ-नास्तिक" कहते है । बुद्ध ने तो यही कहा था - में नास्तिक हूँ ! अर्थात में ईश्वर में विश्वास रखता हूँ । बुद्ध ने खुद को तो ईश्वर कहा नही, तो कौनसा ईश्वर था, जिसपर बुद्ध को विश्वास था ? साफ है, वो महादेव, नारायण इनमे से ही कोई एक था । अब एक छोटे से शब्द का पता भीमराव अंबेडकर जैसे पढ़े लिखे लोग नही कर पाए ! तो इनकी बुद्धि का अंदाजा आप खुद लगा सकते है ।।
अब क्रिश्चनिटी (Chirsnity ) शब्द को ध्यान से पढिये - अगर हम "Chirs+n+ity " को अलग अलग विभाजित यानी संधि विच्छेद करके C को "क" पढ़े जैसे कि Cricket के C को क पढ़ते है । तो इसका अर्थ कुछ यूं बनता है = कृष + न + इति = कृष्णनीति ! यह साफ साफ कृष्णनीति शब्द बनता है । क्यो की ईसाई पंथी कभी कृष्णपंथी ही थे ।। ओर अगर यह कृष्ण नीति नही होता तो जैसे बुद्ध का बुद्धिज्म ( बुद्ध-इज्म) बना , कम्युनिज्म बना , उसी प्रकार ईशा पंथ का का नाम क्राइस्ट-इज्म या जीजस-इज्म होता । परिणामतः ईसाइयो को दुबारा अपने मूल धर्मग्रन्थ " भगवतगीता " की और लौट आना चाहिए, क्यो की " बाइबिल " ना तो कृष्ण ने लिखा, ओर ना क्राइस्ट ने ।
ईसाई लोग अपने साधुओं को सेंट कहते है । यह संस्कृत के "सन्त " का ही अपभ्रंस तो है । पाल नाम का एक सन्त ईसाइयो में था , वह कपोलकल्पित ही था । वह सन्त कोई और नही, " गौ-पाल " यानी कृष्ण ही था, ओर उन्हें सन्त इसलिए कहा गया, क्यो की कृष्ण ने बिना परिणाम की चिंता किये, बिना किसी स्वार्थ के , बिना किसी से द्वेष रखे महाभारत के युद्ध मे अर्जुन की सहायता की, अर्जुन की सहायता तो की ही, साथ मे अपनी " नारायणी " सेना दुर्योधन को सौंपकर भी एक सन्त होने का ही परिचय दिया ।
अब थोड़ा और आगे चलते है । ईसाई पादरियों ओर साध्वी के गृहों को " मोनास्ट्रीज " कहा जाता है । यह शब्द का संस्कृत का मुनि-स्था-रि है । मुनि का अर्थ - गुणी , पुण्य, पवित्र होता है , स्था का मतलब "स्टे " ( रुकना, ठहरना आदि होता है । रि शब्द का विशिष्ठ प्रयोग होता है । अतः यह शब्द मुनिस्थारी संस्कृत शब्द का बिगड़ा रूप ही है ।
अब इनके चर्च शब्द को ले लेते है । चर्च - चर्चा का धोतक शब्द है, यानी चर्चा का । चूंकि कृष्ण नीति कृष्ण सम्प्रदाय की बैठकों में सभाओं में भगवतगीता आदि की चर्चा होती थी, जिस स्थान पर वो चर्चा करते, उसी भवनों को , मंदिरों को बाद में चर्चा से चर्च का नाम दे दिया गया
Gnostic ( नास्तिक ) यह पूरा का पूरा मूल संस्कृत शब्द ही है । ईश्वर में विश्वास रखने वालों के लिए आधुनिक संस्कृत में आस्तिक शब्द का प्रयोग हुआ है । ओर नास्तिक शब्द उनके लिए, जो ईश्वर में विश्वास नही रखते । लेकिन सही संस्कृत शब्द अगर देखे तो नास्तिक मतलब ईश्वर में विश्वास रखने वाला होता है , ओर जो ईश्वर में विश्वास नही रखते, उसे A-gnostic यानी "अ-नास्तिक" कहते है । बुद्ध ने तो यही कहा था - में नास्तिक हूँ ! अर्थात में ईश्वर में विश्वास रखता हूँ । बुद्ध ने खुद को तो ईश्वर कहा नही, तो कौनसा ईश्वर था, जिसपर बुद्ध को विश्वास था ? साफ है, वो महादेव, नारायण इनमे से ही कोई एक था । अब एक छोटे से शब्द का पता भीमराव अंबेडकर जैसे पढ़े लिखे लोग नही कर पाए ! तो इनकी बुद्धि का अंदाजा आप खुद लगा सकते है ।।
अब क्रिश्चनिटी (Chirsnity ) शब्द को ध्यान से पढिये - अगर हम "Chirs+n+ity " को अलग अलग विभाजित यानी संधि विच्छेद करके C को "क" पढ़े जैसे कि Cricket के C को क पढ़ते है । तो इसका अर्थ कुछ यूं बनता है = कृष + न + इति = कृष्णनीति ! यह साफ साफ कृष्णनीति शब्द बनता है । क्यो की ईसाई पंथी कभी कृष्णपंथी ही थे ।। ओर अगर यह कृष्ण नीति नही होता तो जैसे बुद्ध का बुद्धिज्म ( बुद्ध-इज्म) बना , कम्युनिज्म बना , उसी प्रकार ईशा पंथ का का नाम क्राइस्ट-इज्म या जीजस-इज्म होता । परिणामतः ईसाइयो को दुबारा अपने मूल धर्मग्रन्थ " भगवतगीता " की और लौट आना चाहिए, क्यो की " बाइबिल " ना तो कृष्ण ने लिखा, ओर ना क्राइस्ट ने ।
ईसाई लोग अपने साधुओं को सेंट कहते है । यह संस्कृत के "सन्त " का ही अपभ्रंस तो है । पाल नाम का एक सन्त ईसाइयो में था , वह कपोलकल्पित ही था । वह सन्त कोई और नही, " गौ-पाल " यानी कृष्ण ही था, ओर उन्हें सन्त इसलिए कहा गया, क्यो की कृष्ण ने बिना परिणाम की चिंता किये, बिना किसी स्वार्थ के , बिना किसी से द्वेष रखे महाभारत के युद्ध मे अर्जुन की सहायता की, अर्जुन की सहायता तो की ही, साथ मे अपनी " नारायणी " सेना दुर्योधन को सौंपकर भी एक सन्त होने का ही परिचय दिया ।
अब थोड़ा और आगे चलते है । ईसाई पादरियों ओर साध्वी के गृहों को " मोनास्ट्रीज " कहा जाता है । यह शब्द का संस्कृत का मुनि-स्था-रि है । मुनि का अर्थ - गुणी , पुण्य, पवित्र होता है , स्था का मतलब "स्टे " ( रुकना, ठहरना आदि होता है । रि शब्द का विशिष्ठ प्रयोग होता है । अतः यह शब्द मुनिस्थारी संस्कृत शब्द का बिगड़ा रूप ही है ।
अब इनके चर्च शब्द को ले लेते है । चर्च - चर्चा का धोतक शब्द है, यानी चर्चा का । चूंकि कृष्ण नीति कृष्ण सम्प्रदाय की बैठकों में सभाओं में भगवतगीता आदि की चर्चा होती थी, जिस स्थान पर वो चर्चा करते, उसी भवनों को , मंदिरों को बाद में चर्चा से चर्च का नाम दे दिया गया
भीमराव अंबेडकर को मनुस्मृति जला ने का अधिकार किसने दिया
ReplyDeleteमेरा प्रश्न को आप अन्यथा ना ले जब यह लोग जानते हैं संविधान से ही देश चल रहा है तो फिर मनुस्मृति का दहन क्यों