वसति दशन शिखरे धरणी तव लग्ना | शशिनि कलंक कल इव निमग्ना ||
केशव धृत सूकर रूप जय जगदीश हरे || ३ ||
अनुवाद - हे जगदीश! हे केशव! हे हरे! हे वराहरूपधारी ! जिस प्रकार चन्द्रमा अपने भीतर कलंकके सहित सम्मिलित रूपसे दिखाई देता है, उसी प्रकार आपके दाँतों के ऊपर पृथ्वी अवस्थित है || ३ ||
व्याख्या - अष्टपदीके तृतीय पदमें भगवानकी स्तुति की गयी है। भगवान् पृथ्वीको धारण करते हैं, इतना ही नहीं, समस्त चराचरको धारण करनेवाली पृथ्वीको अपने दाँतोंपर अवस्थित कर चलते भी हैं। सृष्टिके प्रारम्भमें हिरण्याक्ष जब बीजभूता पृथ्वीका अपहरण करके रसातलमें चला गया था, तो श्रीभगवानने वराहरूप धारण किया और प्रलयकालीन जलके भीतर प्रविष्ट होकर अपने दाँतोंके अग्रभागपर पृथ्वीको उठाकर ऊपर ले आये तथा अपने सत्यसप्रल्परूपी योगबलके द्वारा उसे जलके ऊपर स्थापित किया । जिस समय भगवान् अपने दाँतोंके अग्रभागपर पृथ्वीको उठाकर ला रहे थे, उस समय उनके उज्ज्वल दाँतोंके ऊपर पृथ्वी ऐसे सुशोभित हो रही थी, जिस प्रकार चन्द्रमाके भीतर उसके बीचमें उसकी कालिमा सुशोभित होती है। कविने भगवानके दाँतोंको बालचन्द्रमाकी उपमा देकर उनके दाँतोंके महदाकारत्व तथा धरणीके अल्पाकारत्वको सूचित किया है। धरणी कलप्र कलावत् निमग्ना है । निमग्न शब्दसे वराहदेव भयानक रसके अधिष्ठाता रूपमें प्रकाशित होते हैं। इस पदमें उपमा अलंकार है। हे शूकररूप धारिण ! आपकी जय हो || ३ ||
वैज्ञानिक काफी लंबे समय से अंतरिक्ष में पानी की खोज अलग-अलग ग्रहों पर कर रहें हैं, पर अब खगोलशास्त्रियों ने पानी के स्त्रोत को अंतरिक्ष में खोज लिया है और यह इतना बड़ा है कि यह सूरज को भी चंद सेकेंडों में ठंडा कर सकता है। जी हां, असल में वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में एक ऐसे विशाल जल स्त्रोत को खोज निकाला है जो सूरज को भी अपने अंदर समा सकता है। इस खोज से यह पक्का पता लग गया है कि अंतरिक्ष में पानी मौजूद है।
असल में वैज्ञानिकों को वाष्पोत्सर्जन के कई इतने विशाल समूह मिले हैं जो पृथ्वी के सभी समुद्रों को अपने अंदर समा सकते हैं। वर्तमान में मिला जलवाष्प भी सूरज से करीब 1,00,000 गुना बड़ा है जो सूरज को भी अपने अंदर समाने की योग्यता रखता है। नासा की ‘जेट प्रोपलशन लेबोरेट्री’ के खगोलशास्त्री मेट ब्रेडफोर्ड ने इस बारे में कहा है कि “कैसर के पास का वातावरण बहुत ही अलग और अद्वितीय है, क्योंकि यह पानी के बड़े-बड़े समूह बना रहा है। यह बताता है कि ब्रह्मांड में पानी की मौजूदगी बहुत पहले से है।”, इस प्रकार से देखा जाए तो अंतरिक्ष में पानी होने की बात अपने आप में एक बड़ी बात है, जो की इंसान के अन्य ग्रह पर रहने के सपने को और भी ज्यादा आसान कर देगी।
n. विष्णु का तृतीय अवतार, जो हिरण्याक्ष नामक असुर के वध के लिए उत्पन्न हुआ था । इसे ‘ यज्ञवराह ’ नामांतर भी प्राप्त था [म. स. परि. १ क्र. २१ पंक्ति. १४०] ।
वैदिक साहित्य में n. वराह अवतार का अस्पष्ट निर्देश वैदिक साहित्य में प्राप्त है । किन्तु वहॉं कौनसी भी जगह वराह - अवतार को विष्णु का अवतार नहीं बताया गया है । ऋग्वेद में इंद्र के द्वारा वराह का वध होने की कथा दी गई है [ऋ. १०.९९.६] । प्रजापति के द्वारा वराह, का रुप लेने की कथा तैत्तिरीय - संहिता में प्राप्त है । पृथ्वी के उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रजापति वायु का रुप धारण कर अंतरिक्ष में घूम रहा था । उस समय समुद्र के पानी में डूबी हुई पृथ्वी उसने सहजवश देखी । फिर प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर पानी में प्रवेश किया, एवं पानी में डूबी हुई पृथ्वी को उपर उठाया । तत्पश्चात् उसने पृथ्वी को पोंछ कर स्वच्छ किया, एवं वहॉं देव, मनुष्य आदि का निर्माण किया [तै. सं. ७.१.५.१] । तैत्तिरीय ब्राह्मण में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गई है, जिसके अनुसार ब्रह्मा के नाभिकमल के निचले भाग में स्थित कीचड प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर क्षीरसागर से उपर लाया, एवं उसे ब्रह्मा के नाभिकमल के पन्नों पर फैला दिया । आगे चल कर उसी कीचड ने पृथ्वी का रुप धारण किया [तै. ब्रा. १.१.३] ।
पुराणों में n. इन ग्रंथों में निर्दिष्ट विष्णु के अवतार प्रायः ‘ वराह अवतार ’ से ही प्रारंभ होता हैं । हिराण्याक्ष नामक असुर पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल में ले गया । उस समय विष्णु ने वराह का रुप धारण कर, अपने एक ही दॉंत से पृथ्वी को उपर उठा कर समुद्र के बाहर लाया, एवं उसकी स्थापना शेष नाग के मस्तक पर की । तत्पश्चात् उसने हिराण्याक्ष का भी वध किया [म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति. ५६ - ५८, क्र. २७. पंक्ति. ४७ -५० ];[ म.शां. २६०];[ मत्स्य. ४७.४७.२४७ - २४८];[ भा. १.३.७, २.७.१, ३.१३.३१];[ लिंग. १.९४];[ वायु. ९७.७];[ ह. वं. १.४१];[ पद्म. उ. १६९, २३७] । विष्णु का यह अवतार वाराह - कल्प के प्रारंभ में हुआ [वायु. २३.१०० -१०९] । कई पुराणों में इसका स्वरुपवर्णन प्राप्त है, जहॉं इसे चतुर्बाहु, चतुष्पाद, चतुर्नेत्र एवं चतुर्मुख कहा गया है । हिरण्याक्ष के वध के पश्चात् इसने यथाविधि श्राद्ध किया था [म. शां. ३३३.१२ - १७] ।
वराहस्थान n. जिस स्थानपर इसने पृथ्वी का उद्धार किया, उस स्थान को ‘ वराहतीर्थ ’ कहते हैं [म. व. ८१.१५];[ पद्म. उ. १६९] । वराह पुराण के अनुसार, यह ‘ वराहक्षेत्र ’ अथवा ‘ कोकामुखक्षेत्र ’ बंगाल में त्रिवेणी नदी के तट पर नाथपूर ग्राम के पास स्थित है [वराह. १४०.] । गंगानदी के तट पर सोरोन ग्राम में वराह - लक्ष्मी का मंदीर हैं [वराह. १३७] ।
वराह - अवतार का अन्वयार्थ n. विष्णु के दस अवतारों में से मत्स्य, कूर्म एवं वराह ये ‘ दिव्य ’, अर्थात मनुष्य जाति के उप्तत्ति के पूर्व के अवतार माने जाते हैं । विष्णु के मानुषी अवतार अर्धमनुष्याकृति नृसिंह से, एवं वामन अवतार से प्रारंभ होते है । इससे प्रतीत होता है कि, मत्स्य, वराह एवं कूर्म अवतार पृथ्वी के उस अवस्था में उत्पन्न हुए थे, जिस समय पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य प्राणि का अस्तित्व नहीं था । प्राणिजाति की उत्क्रान्ति के दृष्टि से भी मत्स्य, कूर्म, वराह यह क्रम सुयोग्य प्रतीत होता है । क्यों कि, प्राणिशास्त्र के अनुसार सृष्टि में सर्वप्रथम जलचर प्राणि ( मत्स्य ) उत्पन्न हुए, एवं तप्तश्चात् क्रमशः जमीन पर घसीट कर चलनेवाले ( कूर्म ) , स्तनोंवाले ( वराह ), एवं अन्त में मनुष्यजाति का निर्माण हुआ । इस प्रकार पुराणों में निर्दिष्ट विष्णु के दैवी अवतार प्राणिजाति के उत्क्रान्ति के क्रमशः विकसित होनेवाले रुप प्रतीत होते हैं । प्राणिशास्त्र की दृष्टि से, प्राणीजाति के उत्पत्ति के पूर्व समस्त सृष्टि जलमय थी, जहां के कीचड में सर्वप्रथम प्राणिजाति की उत्पत्ति हुई । इस दृष्टि से देखा जाये तो, प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर समुद्र का सारा कीचड पानी के बाहर लाया, एवं उसी कीचड से सर्वप्रथम पृथ्वी का, एवं तत्पश्चात पृथ्वी के प्राणिसृष्टि का निर्माण किया, यह तैत्तिरीय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कल्पना उत्क्रान्तिवाद की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होती है । वैदिक वाडमय में सर्वत्र ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माण करनेवाला देवता माना गया है, जिसका स्थान ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु के द्वारा लिया गया है ( ब्रह्मन्, विष्णु एवं प्रजापति देखिये ) । यही कारण है कि, ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में वराह को क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु का अवतार कहा गया है ।
वराहाय नम: सूकराय नम: धृतसूकररूपकेशवाय नम:
असल में वैज्ञानिकों को वाष्पोत्सर्जन के कई इतने विशाल समूह मिले हैं जो पृथ्वी के सभी समुद्रों को अपने अंदर समा सकते हैं। वर्तमान में मिला जलवाष्प भी सूरज से करीब 1,00,000 गुना बड़ा है जो सूरज को भी अपने अंदर समाने की योग्यता रखता है। नासा की ‘जेट प्रोपलशन लेबोरेट्री’ के खगोलशास्त्री मेट ब्रेडफोर्ड ने इस बारे में कहा है कि “कैसर के पास का वातावरण बहुत ही अलग और अद्वितीय है, क्योंकि यह पानी के बड़े-बड़े समूह बना रहा है। यह बताता है कि ब्रह्मांड में पानी की मौजूदगी बहुत पहले से है।”, इस प्रकार से देखा जाए तो अंतरिक्ष में पानी होने की बात अपने आप में एक बड़ी बात है, जो की इंसान के अन्य ग्रह पर रहने के सपने को और भी ज्यादा आसान कर देगी।
n. विष्णु का तृतीय अवतार, जो हिरण्याक्ष नामक असुर के वध के लिए उत्पन्न हुआ था । इसे ‘ यज्ञवराह ’ नामांतर भी प्राप्त था [म. स. परि. १ क्र. २१ पंक्ति. १४०] ।
वैदिक साहित्य में n. वराह अवतार का अस्पष्ट निर्देश वैदिक साहित्य में प्राप्त है । किन्तु वहॉं कौनसी भी जगह वराह - अवतार को विष्णु का अवतार नहीं बताया गया है । ऋग्वेद में इंद्र के द्वारा वराह का वध होने की कथा दी गई है [ऋ. १०.९९.६] । प्रजापति के द्वारा वराह, का रुप लेने की कथा तैत्तिरीय - संहिता में प्राप्त है । पृथ्वी के उत्पत्ति के पूर्वकाल में प्रजापति वायु का रुप धारण कर अंतरिक्ष में घूम रहा था । उस समय समुद्र के पानी में डूबी हुई पृथ्वी उसने सहजवश देखी । फिर प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर पानी में प्रवेश किया, एवं पानी में डूबी हुई पृथ्वी को उपर उठाया । तत्पश्चात् उसने पृथ्वी को पोंछ कर स्वच्छ किया, एवं वहॉं देव, मनुष्य आदि का निर्माण किया [तै. सं. ७.१.५.१] । तैत्तिरीय ब्राह्मण में यही कथा कुछ अलग ढंग से दी गई है, जिसके अनुसार ब्रह्मा के नाभिकमल के निचले भाग में स्थित कीचड प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर क्षीरसागर से उपर लाया, एवं उसे ब्रह्मा के नाभिकमल के पन्नों पर फैला दिया । आगे चल कर उसी कीचड ने पृथ्वी का रुप धारण किया [तै. ब्रा. १.१.३] ।
पुराणों में n. इन ग्रंथों में निर्दिष्ट विष्णु के अवतार प्रायः ‘ वराह अवतार ’ से ही प्रारंभ होता हैं । हिराण्याक्ष नामक असुर पृथ्वी का हरण कर उसे पाताल में ले गया । उस समय विष्णु ने वराह का रुप धारण कर, अपने एक ही दॉंत से पृथ्वी को उपर उठा कर समुद्र के बाहर लाया, एवं उसकी स्थापना शेष नाग के मस्तक पर की । तत्पश्चात् उसने हिराण्याक्ष का भी वध किया [म. व. परि. १. क्र. १६. पंक्ति. ५६ - ५८, क्र. २७. पंक्ति. ४७ -५० ];[ म.शां. २६०];[ मत्स्य. ४७.४७.२४७ - २४८];[ भा. १.३.७, २.७.१, ३.१३.३१];[ लिंग. १.९४];[ वायु. ९७.७];[ ह. वं. १.४१];[ पद्म. उ. १६९, २३७] । विष्णु का यह अवतार वाराह - कल्प के प्रारंभ में हुआ [वायु. २३.१०० -१०९] । कई पुराणों में इसका स्वरुपवर्णन प्राप्त है, जहॉं इसे चतुर्बाहु, चतुष्पाद, चतुर्नेत्र एवं चतुर्मुख कहा गया है । हिरण्याक्ष के वध के पश्चात् इसने यथाविधि श्राद्ध किया था [म. शां. ३३३.१२ - १७] ।
वराहस्थान n. जिस स्थानपर इसने पृथ्वी का उद्धार किया, उस स्थान को ‘ वराहतीर्थ ’ कहते हैं [म. व. ८१.१५];[ पद्म. उ. १६९] । वराह पुराण के अनुसार, यह ‘ वराहक्षेत्र ’ अथवा ‘ कोकामुखक्षेत्र ’ बंगाल में त्रिवेणी नदी के तट पर नाथपूर ग्राम के पास स्थित है [वराह. १४०.] । गंगानदी के तट पर सोरोन ग्राम में वराह - लक्ष्मी का मंदीर हैं [वराह. १३७] ।
वराह - अवतार का अन्वयार्थ n. विष्णु के दस अवतारों में से मत्स्य, कूर्म एवं वराह ये ‘ दिव्य ’, अर्थात मनुष्य जाति के उप्तत्ति के पूर्व के अवतार माने जाते हैं । विष्णु के मानुषी अवतार अर्धमनुष्याकृति नृसिंह से, एवं वामन अवतार से प्रारंभ होते है । इससे प्रतीत होता है कि, मत्स्य, वराह एवं कूर्म अवतार पृथ्वी के उस अवस्था में उत्पन्न हुए थे, जिस समय पृथ्वी पर कोई भी मनुष्य प्राणि का अस्तित्व नहीं था । प्राणिजाति की उत्क्रान्ति के दृष्टि से भी मत्स्य, कूर्म, वराह यह क्रम सुयोग्य प्रतीत होता है । क्यों कि, प्राणिशास्त्र के अनुसार सृष्टि में सर्वप्रथम जलचर प्राणि ( मत्स्य ) उत्पन्न हुए, एवं तप्तश्चात् क्रमशः जमीन पर घसीट कर चलनेवाले ( कूर्म ) , स्तनोंवाले ( वराह ), एवं अन्त में मनुष्यजाति का निर्माण हुआ । इस प्रकार पुराणों में निर्दिष्ट विष्णु के दैवी अवतार प्राणिजाति के उत्क्रान्ति के क्रमशः विकसित होनेवाले रुप प्रतीत होते हैं । प्राणिशास्त्र की दृष्टि से, प्राणीजाति के उत्पत्ति के पूर्व समस्त सृष्टि जलमय थी, जहां के कीचड में सर्वप्रथम प्राणिजाति की उत्पत्ति हुई । इस दृष्टि से देखा जाये तो, प्रजापति ने वराह का रुप धारण कर समुद्र का सारा कीचड पानी के बाहर लाया, एवं उसी कीचड से सर्वप्रथम पृथ्वी का, एवं तत्पश्चात पृथ्वी के प्राणिसृष्टि का निर्माण किया, यह तैत्तिरीय ब्राह्मण में निर्दिष्ट कल्पना उत्क्रान्तिवाद की दृष्टि से सुयोग्य प्रतीत होती है । वैदिक वाडमय में सर्वत्र ब्रह्मा को सृष्टि का निर्माण करनेवाला देवता माना गया है, जिसका स्थान ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु के द्वारा लिया गया है ( ब्रह्मन्, विष्णु एवं प्रजापति देखिये ) । यही कारण है कि, ब्राह्मण एवं पौराणिक ग्रंथों में वराह को क्रमशः प्रजापति एवं विष्णु का अवतार कहा गया है ।
वराहाय नम: सूकराय नम: धृतसूकररूपकेशवाय नम:
Scientists Discover The Oldest, Largest Body Of Water In Existence–In Space
Around a black hole 12 billion light years away, there’s an almost unimaginable vapor cloud of water–enough to supply an entire planet’s worth of water for every person on earth, 20,000 times over.
Scientists have found the biggest and oldest reservoir of water ever–so large and so old, it’s almost impossible to describe.
The water is out in space, a place we used to think of as desolate and desert dry, but it’s turning out to be pretty lush.
Researchers found a lake of water so large that it could provide each person on Earth an entire planet’s worth of water–20,000 times over. Yes, so much water out there in space that it could supply each one of us all the water on Earth–Niagara Falls, the Pacific Ocean, the polar ice caps, the puddle in the bottom of the canoe you forgot to flip over–20,000 times over.
The official NASA news release describes the amount of water as “140 trillion times all the water in the world’s oceans,” which isn’t particularly helpful, except if you think about it like this.
That one cloud of newly discovered space water vapor could supply 140 trillion planets that are just as wet as Earth is.
Mind you, our own galaxy, the Milky Way, has about 400 billion stars, so if every one of those stars has 10 planets, each as wet as Earth, that’s only 4 trillion planets worth of water.
The new cloud of water is enough to supply 28 galaxies with water.
Truly, that is one swampy patch of intergalactic space.
Equally stunning is the age of the water factory. The two teams of astrophysicists that found the quasar were looking out in space a distance of 12 billion light years. That means they were also looking back in time 12 billion years, to when the universe itself was just 1.6 billion years old. They were watching water being formed at the very start of the known universe, which is to say, water was one of the first substances formed, created in galactic volumes from the earliest time. Given water’s creative power to shape geology, climate and biology, that’s dramatic.
“It’s another demonstration that water is pervasive throughout the universe, even at the very earliest times,” says Matt Bradford, an astrophysicist at NASA’s Jet Propulsion Laboratory and leader of one of the teams that made the discovery. (The journal article reporting the discovery is titled, without drama, “The Water Vapor Spectrum of APM 08279+5255: X-Ray Heating and Infrared Pumping over Hundreds of Parsecs.”)
It is not as if you’d have to wear foul-weather gear if you could visit this place in space, however. The distances are as mind-bogglingly large as the amount of water being created, so the water vapor is the finest mist–300 trillion times less dense than the air in a typical room.
And it’s not as if this intergalactic water can be of any use to us here on Earth, of course, at least not in the immediate sense. Indeed, the discovery comes as a devastating drought across eastern Africa is endangering the lives of 10 million people in Somalia, Kenya, and Ethiopia. NASA’s water discovery should be a reminder that if we have the sophistication to discover galaxies full of water 12 billion light years away, we should be able to save people just an ocean away from drought-induced starvation.
The NASA announcement is also a reminder how quickly our understanding of the universe is evolving and how much capacity for surprise nature still has for us. There’s water on Mars, there’s water jetting hundreds of miles into space from Enceladus, one of Saturn’s moons, there are icebergs of water hidden in the polar craters of our own Moon. And now it turns out that a single quasar has the ability to manufacture galaxies full of water.
But it was only 40 years ago, in 1969, that scientists first confirmed that water existed anywhere besides Earth.
Charles Fishman is the author of The Big Thirst: The Secret Life and Turbulent Future of Water, published by Free Press / Simon & Schuster. © 2011, Charles Fishman.
Read more from The Big Thirst on FastCompany.com.
[Artist rendering of water vapor circling quasar: NASA]
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