मथुरा नरेश यदुवंशी राजा कुलचंद का वो अप्रितम बलिदान!
मथुरा का राजा कुलचंद-: जब महमूद गजनवी भारत में अपना आतंकपूर्ण इतिहास लिख रहा था और अपनी क्रूरता से विश्व की इस प्राचीनतम संस्कृति के धनी देश की संस्कृति को मिटाने का हर संभव कार्य कर रहा था!
उस समय इस देश को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से समृद्ध करने में अग्रणी रहे मथुरा पर यदुवंशी राजपूत कुलचंद नामक वीर कुल शिरोमणि शासक शासन कर रहा था!
2 दिसंबर 1018 को महमूद गजनवी का आतंकी और आक्रांता सैन्य दल बरन (बुलंदशहर) पहुंचा था!
कुलचंद ने भारत की वीर कुलपरंपरा का परिचय देने का निर्णय लिया!
इधर महमूद गजनवी का अगला निशाना मथुरा ही बन रहा था, जहां का राजा कुलचंद अपने राज दरबारियों तथा सेनापतियों के साथ मिलकर इस विदेशी आक्रांता का सामना करने का निर्णय ले चुका था!
मथुरा का गौरवपूर्ण अतीत-: मथुरा प्राचीनकाल से अपने वैशिष्टय के लिए प्रसिद्द रही है!
इसके नाम की उत्पत्ति संस्कृति के ‘मधुर’ शब्द से हुई बतायी जाती है। यह भी माना जाता है कि रामायण काल में इस नगरी का नाम मधुपुर था!
कभी यह मधुदानव नामक दानव के लडक़े लवणासुर की राजधानी भी रही थी!
लवणासुर के अत्याचारों से त्राहिमाम् कर रही जनता ने अयोध्यापति भगवान राम से सहायता की याचना की तो भगवान राम ने अपने भाई शत्रुघ्न को लवणासुर का प्राणान्त करने के लिए भेजा!
शत्रुघ्न अपने लक्ष्य में सफल मनोरथ होकर लौटे!
द्वापर युग में यहां कंस ने अत्याचारों की कहर बरपा की, तो जैसे लवणासुर का अंत शत्रुघ्न ने रामायण काल में किया था, वैसे ही महाभारत काल में कंस का अंत कृष्ण ने किया था!
तब उन्होंने महाराजा उग्रसेन को पुन: राज्यसिंहासन पर बैठाकर धर्म की स्थापना की!
गुप्तकाल में इसकी और भी अधिक उन्नति हुई!
यहां मंदिरों का इस काल में भरपूर विकास हुआ। इस प्रकार मथुरा जैसी सांस्कृतिक और धार्मिक नगरी की ओर महमूद का बढऩा सचमुच इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है!
मानो महमूद एक नगर की ओर नही बल्कि इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की प्रतीक एक महान ऐतिहासिक धरोहर को ही मिटाने के लिए आगे बढ़ता जा रहा था!
कुलचंद जानता था अपना राष्ट्रधर्म उन्हें जब पराधीनता के गहराते अंधकार को चीरकर भगवा का परचम फहराना कुलचंद के लिए आवश्यक था।
सौभाग्य की बात थी कि राजा कुलचंद यह जानता था कि वह किस ऐतिहासिक धरोहर का इस समय संरक्षक है और इस विषम से विषम परिस्थिति में उसका राष्ट्र धर्म या राष्ट्रीय दायित्व क्या है?
अंत में वह घड़ी आ गयी और मलेच्छ आक्रांता से धर्मरक्षक राजा कुलचंद की मुठभेड़ हो ही गयी। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ था। राजा की बड़ी सेना राष्ट्रवेदी पर बलि हुई थी। राजा बड़ी वीरता से लड़ा!
उसके साथ उसकी रानी भी युद्धक्षेत्र में युद्धरत थी। राजा को इसलिए पीछे की कोई चिंता नही थी कि मैं यदि बलिदान हो गया तो रानी का क्या होगा?
कहीं वह आक्रांता के हाथ तो नही आ जाएगी? लगता है दोनों पति-पत्नी पहले से ही मन बनाकर आये थे कि युद्घ का परिणाम यदि हमारे प्रतिकूल गया तो क्या करना है और कैसे करना है?
राजा अपने बलिदान के पीछे किसी प्रकार का जोखिम अपनी रानी के लिए छोडऩा नही चाहता था और रानी भी इसके लिए तैयार नही थी कि राजा के जाने के पश्चात अपना सतीत्व और धर्म किसी विदेशी को सौंपना पड़े।
इसलिए देश के धर्म के लिए और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दोनों प्राणपण से संघर्ष करते रहें।
राजा कुलचंद ने जब देखा कि अब अधिकांश सेना स्वतंत्रता की वेदी पर निज प्राणों का उत्सर्ग कर चुकी है और अब कभी भी वह स्वयं भी शत्रु के हाथों या तो मारे जा सकते हैं या कैद किये जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने राजा हरिदत्त का अनुकरण करने से उत्तम अपना और अपनी रानी का प्राणांत निज हाथों से ही करना उचित और श्रेष्कार माना!
राजा ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान किया उसने अपनी ही तलवार से अपनी रानी और अपना प्राणांत कर मां भारती की सेवा में दो पुष्प चढ़ा दिये!
ये दो पुष्प कहां गिरे या कहां और कौन से स्थान पर मां के लिए चढ़े, किसी इतिहासकार ने आज तक खोजने का प्रयास नही किया!
इतिहास के इस क्रूर मौन से पता नही कब पर्दा हटेगा? कुछ भी हो हम और आप तो आइए इन बलिदानियों पर अपने श्रद्धा पुष्प चढ़ा ही दें।
आज राष्ट्र के लिए और आने वाली पीढिय़ों के लिए यही उचित है!
जय श्री राम
मथुरा का राजा कुलचंद-: जब महमूद गजनवी भारत में अपना आतंकपूर्ण इतिहास लिख रहा था और अपनी क्रूरता से विश्व की इस प्राचीनतम संस्कृति के धनी देश की संस्कृति को मिटाने का हर संभव कार्य कर रहा था!
उस समय इस देश को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से समृद्ध करने में अग्रणी रहे मथुरा पर यदुवंशी राजपूत कुलचंद नामक वीर कुल शिरोमणि शासक शासन कर रहा था!
2 दिसंबर 1018 को महमूद गजनवी का आतंकी और आक्रांता सैन्य दल बरन (बुलंदशहर) पहुंचा था!
कुलचंद ने भारत की वीर कुलपरंपरा का परिचय देने का निर्णय लिया!
इधर महमूद गजनवी का अगला निशाना मथुरा ही बन रहा था, जहां का राजा कुलचंद अपने राज दरबारियों तथा सेनापतियों के साथ मिलकर इस विदेशी आक्रांता का सामना करने का निर्णय ले चुका था!
मथुरा का गौरवपूर्ण अतीत-: मथुरा प्राचीनकाल से अपने वैशिष्टय के लिए प्रसिद्द रही है!
इसके नाम की उत्पत्ति संस्कृति के ‘मधुर’ शब्द से हुई बतायी जाती है। यह भी माना जाता है कि रामायण काल में इस नगरी का नाम मधुपुर था!
कभी यह मधुदानव नामक दानव के लडक़े लवणासुर की राजधानी भी रही थी!
लवणासुर के अत्याचारों से त्राहिमाम् कर रही जनता ने अयोध्यापति भगवान राम से सहायता की याचना की तो भगवान राम ने अपने भाई शत्रुघ्न को लवणासुर का प्राणान्त करने के लिए भेजा!
शत्रुघ्न अपने लक्ष्य में सफल मनोरथ होकर लौटे!
द्वापर युग में यहां कंस ने अत्याचारों की कहर बरपा की, तो जैसे लवणासुर का अंत शत्रुघ्न ने रामायण काल में किया था, वैसे ही महाभारत काल में कंस का अंत कृष्ण ने किया था!
तब उन्होंने महाराजा उग्रसेन को पुन: राज्यसिंहासन पर बैठाकर धर्म की स्थापना की!
गुप्तकाल में इसकी और भी अधिक उन्नति हुई!
यहां मंदिरों का इस काल में भरपूर विकास हुआ। इस प्रकार मथुरा जैसी सांस्कृतिक और धार्मिक नगरी की ओर महमूद का बढऩा सचमुच इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है!
मानो महमूद एक नगर की ओर नही बल्कि इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की प्रतीक एक महान ऐतिहासिक धरोहर को ही मिटाने के लिए आगे बढ़ता जा रहा था!
कुलचंद जानता था अपना राष्ट्रधर्म उन्हें जब पराधीनता के गहराते अंधकार को चीरकर भगवा का परचम फहराना कुलचंद के लिए आवश्यक था।
सौभाग्य की बात थी कि राजा कुलचंद यह जानता था कि वह किस ऐतिहासिक धरोहर का इस समय संरक्षक है और इस विषम से विषम परिस्थिति में उसका राष्ट्र धर्म या राष्ट्रीय दायित्व क्या है?
अंत में वह घड़ी आ गयी और मलेच्छ आक्रांता से धर्मरक्षक राजा कुलचंद की मुठभेड़ हो ही गयी। बड़ा भयंकर युद्ध हुआ था। राजा की बड़ी सेना राष्ट्रवेदी पर बलि हुई थी। राजा बड़ी वीरता से लड़ा!
उसके साथ उसकी रानी भी युद्धक्षेत्र में युद्धरत थी। राजा को इसलिए पीछे की कोई चिंता नही थी कि मैं यदि बलिदान हो गया तो रानी का क्या होगा?
कहीं वह आक्रांता के हाथ तो नही आ जाएगी? लगता है दोनों पति-पत्नी पहले से ही मन बनाकर आये थे कि युद्घ का परिणाम यदि हमारे प्रतिकूल गया तो क्या करना है और कैसे करना है?
राजा अपने बलिदान के पीछे किसी प्रकार का जोखिम अपनी रानी के लिए छोडऩा नही चाहता था और रानी भी इसके लिए तैयार नही थी कि राजा के जाने के पश्चात अपना सतीत्व और धर्म किसी विदेशी को सौंपना पड़े।
इसलिए देश के धर्म के लिए और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दोनों प्राणपण से संघर्ष करते रहें।
राजा कुलचंद ने जब देखा कि अब अधिकांश सेना स्वतंत्रता की वेदी पर निज प्राणों का उत्सर्ग कर चुकी है और अब कभी भी वह स्वयं भी शत्रु के हाथों या तो मारे जा सकते हैं या कैद किये जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने राजा हरिदत्त का अनुकरण करने से उत्तम अपना और अपनी रानी का प्राणांत निज हाथों से ही करना उचित और श्रेष्कार माना!
राजा ने अपना सर्वोत्कृष्ट बलिदान किया उसने अपनी ही तलवार से अपनी रानी और अपना प्राणांत कर मां भारती की सेवा में दो पुष्प चढ़ा दिये!
ये दो पुष्प कहां गिरे या कहां और कौन से स्थान पर मां के लिए चढ़े, किसी इतिहासकार ने आज तक खोजने का प्रयास नही किया!
इतिहास के इस क्रूर मौन से पता नही कब पर्दा हटेगा? कुछ भी हो हम और आप तो आइए इन बलिदानियों पर अपने श्रद्धा पुष्प चढ़ा ही दें।
आज राष्ट्र के लिए और आने वाली पीढिय़ों के लिए यही उचित है!
जय श्री राम
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