Thursday, 20 July 2017

जंजुआ राजपूत राजा जयपाल

भारतीय इतिहास के पन्नो से गायब किया गया एक और वीरो की गौरवगाथा जिसे पढ़कर ही आपका सीना गर्व से चौड़ा हो जाएगा!

यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण बात है कि राजपूतों ने धरती का कोना कोना अपने विरोक्त लहू से लहू लुहान कर दिया पर बदले में उन्हें इतिहास में मिला सिर्फ बदनामी!

वामपंथियों के छापे झूठे इतिहास में हमे हमेशा पढाया जाता रहा कि भारत के राजा कभी एक नहीं हुए तभी भारत गुलाम बना!
बल्कि वास्तविकता तो ये है कि वीर राजपूतों के तलवार की धार का सामना करने वाला कोई आक्रमणकारी पैदा ही नही हुआ था धरती पर!
पढ़िए इतिहास में छुपायी गई एक गौरवगाथा!
8.5 लाख विदेशी सेना को रौंद के फेंक दिया भारत 1 लाख क्षत्रिय वीरो ने!

राजपूत राजाओं की एकता ने मेवाड़, कन्नौज, अजमेर एवं चंदेल राजा धंग और काबुल शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल ने सुबुक्तगीन की 8.5 लाख सेना को धुल चटाया था!
ऐसे ही हमारे भारत के गौरवशाली इतिहास की गौरवगाथाओ को छुपाकर इतिहास में केवल ये लिखा गया राजपूतों ने गद्दारी की थी और उन्हें गद्दार बता गया!
सुबुक्तगीन ने जाबुल शाही जंजुआ राजपूत राजा जयपाल के साम्राज्य पर हमला किया था !

हम आपको बता दें कि जंजुआ राजपूत वंश भी तोमर वंश की शाखा है और अब यह अधिकतर पाकिस्तान के पंजाब में मिलते हैं!
अब कुछ थोड़े से हिन्दू जंजुआ राजपूत भारतीय पंजाब में भी मिलते हैं!

उस समय अधिकांश अहिगणस्थान(अफगानिस्तान), और समूचे पंजाब पर जंजुआ शाही राजपूतो का शासन था!


जाबुल के महाराजा जयपाल की सहायता के लिये मेवाड़, अजमेर, कन्नौज, चंदेल राजा धंग ने भी गजनी के सुल्तान सुबुक्तगीन के विरुद्ध युद्ध के लिए अपनी सेना, धन, गज सेना सब दे दिया था!

और सभी राजपूत राजाओं ने भरपूर योगदान दिया!
सुबुक्तगीन ने 8.5 लाख की सेना के साथ यह आक्रमण करने ९७७ ई. (977A.D) के मध्य में आया था!


उसकी मदद के लिए उसका पिता उज़्बेकिस्तान के सुल्तान सामानिद सेना के साथ आया!
इतनी बड़ी सेना का यह भारत के भूभाग पर पहला आक्रमण था!
मित्रो 8.5 लाख की सेना का युद्ध कोई छोटा मोटा युद्ध नही अपितु एक ऐसा भयंकर तूफान होता है जिसके सामने किसी का भी रूकना असंभव होता है!
मैदानों की सीधी लड़ाई लड़कर इतनी बड़ी सेना को परास्त करना महावीर रणबांकुरों का और अदम्य युद्धनीति के ज्ञाताओं का ही काम हो सकता है!
प्राचीन काल से युद्धनीति और युद्धकौशल में भारत सदा अग्रणी रहा है!
व्यूह रचना के विभिन्न प्रकार और फिर उन्हें तोडऩे की युद्धकला विश्व में भारत के अतिरिक्त भला और किसके पास रही हैं?
इसलिए 8.5 लाख सेना के इस भयंकर तूफान को रोकने के लिए भारत के क्षत्रियो की भुजाएं फड़कने लगीं!


सुबुक्तगीन ने कई बार भारत के विषय में सुन रखा था कि इसकी युद्ध नीति ने पूर्व में किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं को धूल चटाई थी?
इसलिए वह विशाल सेना के साथ भारतवर्ष का राज्य जाबुल की ओर बढ़ा!
यह बात नितांत सत्य है कि भारत के अतिरिक्त यदि किसी अन्य देश की ओर इतनी बड़ी सेना कूच करती तो कई स्थानों पर तो बिना युद्ध के ही सुबुक्तगीन की विजय हो जानी निश्चित थी!
पर हमारे भारत के वीर राजपुताना के पौरूष ने 8.5 लाख की विशाल सेना की चुनौती स्वीकार की!
मेरे अनुसार तो इस चुनौती को स्वीकार करना ही भारतवर्ष की पहली जीत थी और सुबुक्तगीन की पहली हार थी!
क्योंकि सुबुक्तगीन ने इतनी बड़ी सेना का गठन ही इसलिए किया था कि भारत इतने बड़े सैन्य दल को देखकर भयभीत हो जाएगा और उसे भारतवर्ष की राजसत्ता यूं ही थाली में रखी मिल जाएगी!
उसने सेना का गठन यौद्घिक स्वरूप से नही किया था, और ना ही उसका सैन्य दल बौद्धिक रूप से संचालित था!
वह आकस्मिक उद्देश्य के लिए गठित किया गया संगठन था जो समय आने पर बिखर ही जाना था!
समय का चक्र बढ़ता गया और वो समय आ गया सन ९७७ ईस्वी (977A.D) में जाबुल और पंजाब के सीमांतीय पर लड़ा गया यह ऐतिहासिक युद्ध जहाँ एक तरफ थी!
सुबुक्तगीन की 8.5 लाख की लूटेरो सेना!
और दूसरी तरफ थी भारत माता की संस्कृति मातृभूमि के रक्षकों की 1 लाख सेना!
जिनमें मेवाड़, अजमेर, कन्नौज, जेजाभुक्ति प्रान्त (वर्त्तमान बुन्देलखण्ड) के राजा धंग चंदेल, जाबुल शाही जंजुआ राजपूत राजाधिराज जयपाल सब एक हो गये!
जाबुल पंजाब सीमान्त पर क्षत्रिय वीर अपने महान पराक्रमी राजाओं के नेतृत्व में मातृभूमि के लिए धर्मयुद्ध लड़ रहे थे!
जबकि विदेशी आततायी सेना अपने सुल्तान के नेतृत्व में भारत की अस्मिता को लूटने के लिए युद्ध कर रही थी!
8.5 लाख सेना सायंकाल तक 3.5 लाख से भी आधा भी नही बची थी!
गजनी के सुल्तान की सेना युद्ध क्षेत्र से भागने को विवश हो गयी युद्ध में स्थिति स्पष्ट होने लगी इस भयंकर युद्ध में लाशों के लगे ढेर में मुस्लिम सेना के सैनिकों की अधिक संख्या देखकर शेष शत्रु सेना का मनोबल टूट गया!
और समझ गया था कि राजपूत इस बार भी खदेड़, खदेड़ कर काट कर फेंक देंगे!
क्षत्रिय सेना के पराक्रमी प्रहार को देखकर सुबुक्तगीन का हृदय कांप रहा था!
९७७ ईस्वी (977A.D) में इस युद्ध में सुबुक्तगीन की मृत्यु राजा जयपाल के हाथो होती हैं!
युद्ध में विजय श्री भी होती है!
परन्तु इस बात को वामपंथी इतिहासकार छुपा देते हैं!
सुबुक्तगीन की मृत्यु का भेद तक नही बताते हैं!
परन्तु इतिहासकार प्रकांड ज्ञानी डॉ. एस.डी.कुलकर्णी ने अपनी किताब The Struggle for Hindu Supremacy एवं Glimpses of Bhāratiya में लिखा गया हैं इस स्वर्णिम इतिहास का क्षण “1 लाख राजपूत राजाओं के संयुक्त सैन्य अभियान से सुबुक्तगीन की 8.5 लाख की विशाल सेना को परास्त कर मध्य एशिया के आमू-पार क्षेत्र तक भगवा ध्वज लहराकर भारतवर्ष के साम्राज्य में सम्मिलित किया था!
युद्ध का फलस्वरूप राजाधिराज जयपाल के प्रहार से सुबुक्तगीन की मृत्यु होती हैं”!
बहुत समय से ही राष्ट्र के प्रति इन राजाओं के पराक्रम की उपेक्षा के पीछे एक षडयंत्र काम करता रहा है!
जिसके अंतर्गत बार-बार पराजित किये गए मुस्लिम आक्रांताओं में से यदि एक बार भी कोई विजय प्राप्त कर लेता तो वह नायक बना दिया जाता है!
और पराजित को खलनायक बना दिया जाता रहा है!
इसलिए हम आज भी अपने इतिहास में विदेशी नायक और क्षत्रिय खलनायकों का चरित्र पढऩे के लिए अभिशप्त हैं!
विदेशी नायकों का गुणगान करने वाले इतिहास लेखक तनिक हैवेल के इस कथन को भी पढ़ें-जिसमें वह कहता है-’यह भारत था न कि यूनान जिसने इस्लाम को अपनी युवावस्था के प्रभावशाली वर्षों में बहुत कुछ सिखाया इसके दर्शन को तथा धार्मिक आदर्शों को एक स्वरूप दिया तथा बहुमुखी साहित्य कला तथा स्थापत्यों में भावों की प्रेरणा दी!
साम्प्रदायिक मान्यताएं होती हैं!
घातक इतिहास के तथ्यों के साथ गंभीर छेड़छाड़ कराने के लिए साम्प्रदायिक मान्यताएं और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह सबसे अधिक उत्तरदायी होते हैं!
साम्प्रदायिक आधार पर जो आक्रांता किसी पराजित जाति या राष्ट्र पर अमानवीय और क्रूर अत्याचार करते हैं!
प्रचलित इतिहास लेखकों की शैली ऐसी है कि उन अमानवीय और क्रूर अत्याचारों का भी वह महिमामंडन करती है!
यदि इतिहास लेखन के समय लेखक उन अमानवीय क्रूर अत्याचारों को करने वाले व्यक्ति की साम्प्रदायिक मान्यताओं या पूर्वाग्रहों को कहीं न कहीं उचित मानता है!
या उनसे सहमति व्यक्त करता है!
तब तो ऐसी संभावनाएं और भी बलवती हो जाती हैं!
भारतवर्ष की पावन भूमि प्राचीन काल से राजपूत राजाओं के अनुकरणीय बलिदान की रक्त साक्षी दे रही है!
जिन्होंने विदेशी आक्रांता को यहां धूल चटाई थी और विदेशी 8.5 लाख सेना को गाजर मूली की भांति काटकर अपनी राजपुताना रियासत में एकता की धाक जमाई थी!
उनका वह रोमांचकारी इतिहास और बलिदान हमें बताता है कि भारतवर्ष का भूतपूर्व हिस्सा रहे जाबुल की भूमि ने हिंदुत्व की रक्षार्थ जो संघर्ष किया!
उनका बलिदान निश्चय ही भारत के स्वातंत्र समर का एक ऐसा राष्ट्रीय स्मारक है!
जिसकी कीर्ति का बखान युग युगांतरो तक किया जाना चाहिए!
हिन्दुओ हमने इतिहास से ही शत्रु को चांटे ही नही मारे अपितु शत्रु को ही मिटा डाला!
हमारा वह पुरूषार्थ उस गांधीवादी परंपरा से बहुत बड़ा है!
निस्संदेह बहुत बड़ा है!
जिन्होंने शत्रु से चांटा एक गाल पर खाया तो दूसरा गाल भी चांटा खाने के लिए आगे कर दिया और अंत में चांटा मारने वालों की मानसिक दासता को उसकी स्मृतियों के रूप में यहां बचाकर रख लिया!
हमने कृतज्ञता को महिमामंडित करना था!
पर हम लग गये कृतघ्नता को महिमामंडित करने!
इसे क्या कहा जाये!

1.आत्म प्रवंचना?
2.आत्म विस्मृति?
3.राष्ट्र की हत्या?
4.राष्ट्रीय लज्जा?

रोमिला थापर जैसी कम्युनिस्ट इतिहासकार की मान्यता है कि महमूद किसी मंदिर को तोडऩे नही आया था, वह तो अरब की किसी पुरानी देवी की मूर्ति ढूंढऩे आया था जिसे स्वयं पैगंबर साहब ने तोडऩे को आज्ञा दी थी!
(दैनिक जागरण 1 जून 2004, एस. शंकर-’रोमिला का महमूद’)
रोमिला थापर जैसे इतिहासकार तथ्यों की उपेक्षा कर रही है!
और अपनी अपनी मान्यताओं को स्थापित करते जा रहे हैं!
और मान्यताएं भी ऐसी कि जिनका कोई आधार नही जिनके पीछे कोई तर्क नही और जिनका कोई औचित्य नही!

संदर्भ-:

1. S.D Kulkarni The Struggle for Hindu Supremacy

2. Glimpses of Bhāratiya Rajendra Singh Kushwaha

3. Mitra, Sisirkumar (1977). The Early Rulers of Khajurāho

4. Smith, Vincent Author (1881). "History of Bundelkhand"

5. Dikshit, R. K. (1976). The Candellas of Jejākabhukti

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