Tuesday, 11 July 2017

अंबेडकर और कौटिल्य अर्थशाश्त्रम्

अंबेडकर की थेसिस तथ्यों पर नहीं बल्कि कपोल कल्पना पर आधारित है कैसे ?
मुझे मनु स्मृति तो नहीं पता १० लाख साल पुराना किताब होगा न जाने किसने कब लिखा ?
संविधान पढ़ा है | जिसमे आरक्षण लिखा है |
जिसमे ऊंच नीच में समाज को बांटा गया है | उसमे बहुत सारी केटेगरी उच्च वर्ग, निम्न वर्ग, सामान्य, अनुसूचित जाती, अनुसूचित जनजाति,अन्य पिछड़ा ,पिछड़ा, अतिपिछड़ा इत्यादि लिखा है | जिससे समाज में द्वेष फैला है | हर समय झगड़ा फसाद होता है | कभी जाट, कभी गुर्जर, कभी ब्राह्मण, कभी दलित कभी कोई तो कभी कोई | ये समाज में द्वेष फैलाता है | पिछले 70 साल में समस्या जस की तस है | बदतर होती जा रही है | इस आरक्षण के कारन नई नई जाती वर्ग पैदा होता है | यही बवाल और विसंगति की जड़ है |
क्या चाणक्य को ढूंढे जो चन्द्र गुप्त के समय भारत एक संपन्न राष्ट्र था लेकिन खुद कुटिया में रहते थे
जो मनु लाखो बर्ष पहले आये उसे कहा ढूंढे | उनपर कीचड़ उछाले | जो आज समाज में द्वेष पैदा कर रहे है उसे पकडे |

श्री जीतन राम मांझी कहते है | अंग्रेज महिला ने संविधान लिखा है |
अम्बेडकर नहीं, अंग्रेज महिला ने लिखा संविधान- जीतन राम मांझी
उन्होंने कहा कि हम आप लोगों को बता दे रहे हैं कि बाबा साहब ने संविधान नहीं लिखा था बल्कि बाबा साहब संविधान सभा के अध्यक्ष थे और उसे एक अंग्रेज महिला और भारतीय पुरुष ने लिखा था।
यही सच्चाई है जिसे बहुत कम नेता बोल पाते है | इस सच्चे नेता को प्रणाम और प्यार |

कौटिल्य का नाम ,एक महान राजनीतिज्ञ के नाम पर दर्ज हैं , भारतीय इतिहास के पन्नों में और उनकी दण्डनीति | आज शासन नीति के नाम से जाना जाता है वे राज्य के नियमों का कड़ाई से पालन करवाते थे चन्द्र गुप्त के समय भारत एक संपन्न राष्ट्र था लेकिन खुद कुटिया में रहते थे एक दरिद्र ब्राम्हण की तरह यानी अपरिग्रह ही उनकी जीवन शैली थी शायद तभी से " दरिद्र ब्राम्हण " जैसे शब्दों की नीवं पड़ी होगी इसी को ब्रम्हानिस्म कहते हैं |

अगर ग्रन्थों में उद्धृत -"जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात द्विजः भवति " के महाभारत काल से कौटिल्य के समय काल तक कौटिल्य की दण्डनीति का एक भाग रहा  कि जन्म से कार्य निर्धारित नहीं होता बल्कि स्वभाव से होता है जैसा कि इस श्लोक में वर्णित है कौटिल्य अर्थशाश्त्रम्  " दायविभागे अंशविभागः " नामक अध्ह्याय में पहला श्लोक है -
"एक्स्त्रीपुत्राणाम् ज्येष्ठांशः ब्राम्हणानामज़ा:क्षत्रियनामाश्वः वैश्यानामगावह , शुद्रणामवयः "

अनुवाद : यदि एक स्त्री के कई पुत्र हों तो उनमे से सबसे बड़े पुत्र को वर्णक्रम में इस प्रकार हिस्सा मिलना चाहिए : ब्राम्हणपुत्र को बकरिया ,क्षत्रियपुत्र को घोड़े वैश्यपुत्र को गायें और शूद्र पुत्र को भेंड़ें ( जिससे हर व्यक्ति अपने स्वधर्म का पालन कर समाज मे योगदान दे स्वधर्म: यानि व्यक्ति के अंदर निहित उसकी प्रवृत्ति, innate nature , aptitude आज पुनः नौकरियों हेतु एप्टिट्यूड टेस्ट होता है , और लोग हजारो रुपये खर्च कर अपने बच्चे का एप्टिट्यूड टेस्ट करवाते हैं कि उसको किस फील्ड मे आगे बढ्ने के लिए प्रेरित किया जाय , शिक्षण प्रशिक्षण दिलवाया जाय )

अगर इसको तर्क की कसौटी पर कसें और सावधानी पूर्वक विचार करे तो शायद ये परंपरा इस्लामिक आक्रमण और उसके भारत में आधार जमाने और उनके साम्राज्य स्थापित होने तक , जन्मना जायते शूद्र संस्कारत द्विजः भवति का सिद्धांत और परंपरा का पालन हिन्दू समाज का अनिवार्य अंग होना चाहिए|
कौटिल्य के दूसरी दण्डनीति " जो स्वामी अपने पुरुष मातहतों से मुर्दा , मलमूत्र या जूठन उठवावे , और महिला मातहतों को अनुचित दंड दे ,उसके सतीत्व को नष्ट करे ,नग्न अवस्था में उनके पास जाय, या नंगा कराकर अपने पास बुलाये तो उसके धन जब्त कर लिया जाय  है  "
तीसरा अधिकरण --दासकर्मकरकल्पम् }  को कसा जाय तो कदाचित आप पाएंगे की मल प्रच्छालन भंगी ,मेहतर हेला लालबेगी और अछूत जैसी परंपरा का भी आगमन इस्लामिक शासन का ,भारत के समाज को उपहार स्वरुप भेंट होनी चाहिए | 

इसलिए अछूत और शूद्रों की दुर्दशा के कारण को यदि डॉ आंबेडकर ने, भारत के आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत में खोजने की कोशिश की होती तो ज्यादा समसामयिक होता और शायद सही नतीजे पर पहुँच सकते थे  और देश के अंदर सुलगती घृणा का दानव न पैदा होता जिसके आग मे लोग सत्ता की रोटी सेंक रहे हैं | 
भाषा की अज्ञानता ने उनको कहाँ ले जाकर खड़ा किया

आज जब हम नित नए तथ्यों से वाकिफ हो रहे हैं कि भारत की जीडीपी ,समस्त विश्व की जीडीपी का 25 प्रतिशत के आसपास पिछले २००० साल ( और शायद उससे ज्यादा भी ,क्योंकि अँगुस मैडिसन ने 0 AD से 2000 AD तक की ही खोज की है ) से 1750 तक लगातार बनी हुई थी |

ये अकेले इकोनॉमिस्ट नहीं है ,जिन्होंने ये खोज की है ,एक बेल्जियन इकोनॉमिस्ट पॉल बरोिच भी 1980 के आस पास इसी नतीजे पर पहुंचे थे , जिसका वर्णन पॉल कैनेडी ने अपनी पुस्तक "राइज एंड फॉल ऑफ़ ग्रेट पावर्स" जैक गोल्ड्स्टोन "व्हाई यूरोप -राइज ऑफ़ थे वेस्ट इन वर्ल्ड हिस्ट्री 1500-1850 " में यही बात कहते हैं, जोकि 2004 मे प्रकाशित हुयी है |

वही एकोनोमिस्ट ये भी बताते हैं कि 1750 अमेरिका और ब्रिटेन दोनों मिलकर विश्व की जीडीपी का मात्र २ प्रतिशत जीडीपी उत्पादित करते थे |

ब्रिटिश की शोषणकारी नीतियों के चलते 1900 आते आते  भारत का ट्रेडिशनल घरेलू उद्योग धराशायी हो जाता है  1900 में जब भारत का सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी ) मात्र २ प्रतिशत बचती है  87.5 प्रतिशत लोग ,जो की कौटिल्य के शूद्र की परिभाषा के अनुसार --शुश्रूषा ,वार्ता ( खेती व्यापर ,खनिज उद्योग ) और कारकुशीलव ( टेचनोक्रट्स ,स्वरोजगार करने वाले , इंजीनियर ) बेरोजगार और बेघर हो जाते हैं तो उनकी दरिद्रता को अगर इकोनॉमिस्ट डॉ आंबेडकर ने भारत के आर्थिक इतिहास से जोड़ा होता और उन्हे संस्कृत का ज्ञान होता तो कौटिल्य का अर्थशाश्त्र (एक अर्थशास्त्री की पहली पसंद होती है) पढ़ा होता तो शायद उस नतीजे पर न पहुंचते जहाँ वे पहुंचे | 


उसी जगह गांधीं ने बीमारी की जड़ को पकड़ा  घर घर खादी के कपड़ों की चरखी चलवाने का आह्वान किया और गाडी को पटरी पर वापस लाने की कोशिश की लेकिन गांधी शायद बहुत देर से भारत में पैदा हुए इसलिए गाडी पटरी पर वापस लाने में इतना समय लग गया 65 साल का भारत का इतिहास गवाह है कि आज ब्रिटेन और अमेरिका भारत के कदमों में झुकाने को बेताब है तो 1900 -1946 की विशाल जनसमूह की दरिद्रता का कारन खोजने के लिए ,डॉ आंबेडकर की प्रागैतिहासिक शास्त्रों की यात्रा कोई सार्थक यात्रा प्रतीत नहीं होती | 

डॉ आंबेडकर ने अपनी पुस्तक शूद्र कौन है ?? मे सारे ब्रम्हानिक ग्रंथों का अध्ययन करने के बाद कुछ निष्कर्ष निकाले थे ,,अपनी नयी थीसिस को सिद्ध करने के पूर्व उनमें से कुछेक महत्वपूर्ण विन्दुओं पर विमर्श

(१)शूद्रों को समाज में सबसे निचला दर्जा और अपवित्र - डॉ अंबेडकर

इसको तो अम्बेडकर जी ने खुद ही खंडन किया है, जब वो शूद्र रत्नी का जिक्र करते हैं , राजा के सार्वभौमिकता के सन्दर्भ में , युधिस्ठिर को भीष्म के द्वारा राजनीती की शिक्षा दिए जाने के संदर्भ में  दूसरे इसका उल्लेख कौटिल्य के अर्थ शाश्त्र में भी नहीं है  कौटिल्य ने तो शूद्रो की सेना को , तो ब्राम्हणों की सेना से ज्यादा तेजोमय बताया है डॉ बुचनन जब 1807 में तुलवा प्रदेश के निवासियों का वर्णन करते हैं  तो बंटर्स के बारे में ,वे कहते हैं बंटर्स पवित्र शूद्र के वंशज है | 
तवेर्निएर ने 360 साल पूर्व कौटिल्य की बात का समर्थन करते हुये लिखा कि - " शूद्र पदाति योद्धा थे जिंका सम्मान और आत्म गौरव समाज और युद्ध के मैदान मे क्षत्रियों जैसा ही हुआ करता था कौटिल्य और चन्द्रगुप्त मौर्य के पूर्व मगध का राजा महानन्द शूद्र कुल से था | 
इसका मतलब शूद्र समाज के निचले पायदान पर और अपवित्र कम से कम 1807 तक तो नहीं हुवा था और शूद्र होना भी उतना ही सम्मानित था जितना बाकी वर्णों का |
(मेरी पहुँच वेदों तक और सतपत ब्राम्हण या अन्य ग्रंथों तक नहीं है )

(२) शूद्रों को ज्ञान तो कत्तई नहीं प्राप्त करना चाहिए और उनको शिक्षा देना पाप ही नहीं अपराध भी है - डॉ आंबेडकर 

कौटिल्य ने शूद्रों के धर्म को परिभाषित करते हुए दण्डनीति (शासन नीति) में प्रतिपादित किया कि - "शूद्रस्य द्विजातशुश्रूषा वार्ता कारकुशीलवकर्म "  यानि द्विज की शुश्रूषा ,वार्ता और कार्यकुशीलव | 

कृषि ,पशुपालन और व्यापार ये वार्ता विद्या के अंग है | यह विद्या ,धन धान्य पशु ,हिरण्य ,हिरण्य ताम्र आदि खनिज पदार्थ के बारे में ज्ञान प्राप्त करना ।

कार्यकुशील यानि शिल्पशास्त्र गायन वादन आदि के बारे में ज्ञान प्राप्त करना ।

एक गाँधीवादी धरमपाल अपनी पुस्तक -The Beautiful Tree में लिखते हैं कि 1820 - 1830 में अंग्रेजों द्वारा कराये गए सर्वे में प्राप्त डाटा के अनुसार स्कूल जाने वाले शूद्र छात्रों की संख्या ब्राम्हणों छात्रों से चार गुना थी ।

अब मैकाले का प्रवेश भारतीय शिक्क्षा जगत में 1835 में होती है । इससे दो निष्कर्ष निकलते है -

(१) कौटिल्य के बाद और मैकाले के आने के पूर्व शूद्रो को शिक्षा प्राप्त करने और ज्ञान प्राप्त करने का पूरा अधिकार था ।
(२) वापस पलट के देखिये भारत के आर्थिक इतिहास पर । 1750 में भारत विश्व जीडीपी का 25% शेयर होल्डर और 1900 में मात्र 2% का शेयर होल्डर , और 87.5 % लोग जो एक्सपोर्ट क्वालिटी घरेलू उत्पाद की रीढ़ थे बेरोजगार बेघर और दरिद्र ।गणेश सखाराम देउसकर और Will Durant ने अपनी पुस्तकों   " देश कि कथा "(1904) और "The Case For India " (1930) मे 1875 से 1900 के बीच 2.5 करोड़ भारतीयों अर्थात तत्कालीन आबादी का दसवें हिस्से की अन्न के अभाव मे मौत के मुह मे समा जाने की बात का विस्तृत वर्णन करते हैं और ऐसा नहीं था कि अन्न का अभाव था  सिर्फ उनके जेबों मे अन्न खरीदने का पैसा नहीं था

अब ये अपर जनसमूह जो जैसे तैसे अपने प्राणों की रक्षा करने मे सक्षम रहा , वो अपने सर के लिए छाया और पेट के लिए रोटी की जद्दोजहद करेगा , कि बच्चो की शिक्षा के लिए ??

दलित शोषित शिक्षा से वंचित । लेकिन क्या ब्रम्हानिस्म की वजह से ?

डॉ आंबेडकर ने जिन धर्म ग्रंथों को यूरोपियन संस्कृतज्ञों द्वारा अनुवादित, अनुवादों के अनुवादों को कॉपी एंड पेस्ट ( कॉपी एंड पेस्ट इसलिए कह रहा हूँ क्योकि उन्होंने खुद अपनी पुस्तक में कई जगहों पर वर्णों को caste के नाम से ही सम्बोधित किया है , और ये कहना कि डॉ आंबेडकर इतने अल्पज्ञ थे कि वर्ण और caste का फर्क नहीं समझते थे उनका अपमान होगा ) किया है उन ग्रंथो तक तो मेरी पहुँच नहीं है इसलिए उनके कॉपी और पेस्ट किये गए quotations को उचित या अनुचित करार देना मेरे लिए उचित नहीं है  लेकिन जिन संस्कृतज्ञों को उन्होंने अपने लेखन का आधार बनाया है ,उन तक तो हम पहुँच ही सकते हैं  इसलिए ये साबित करना सरल हो जाएगा कि ये संस्कृतज्ञ पूर्वाग्रह से से ग्रस्त तो नहीं थे या इनके उद्देश्य अकादमिक न होकर अपने ईसाई धर्म को हिन्दू धर्म की तुलना में ज्यादा महान साबित करना था या ईसाइयत को फैलाना था ? और फिर ये समझना भी आसान हो जाता है कि इन संस्कृतज्ञ ईसाई विद्वानों ने संस्कृत ग्रंथों को तोड़ मरोड़ कर तो नहीं पेश किया , या उनको संस्कृत केर समझ ही नहीं थी | 
फिलहाल आपके प्रश्न को संज्ञान में लेने के पूर्व डॉ आंबेडकर के हिन्दू धर्मो के ग्रंथों से निकाले गए दो और निष्कर्षों की चर्चा करता हूँ

(३) ..शूद्रं को संपत्ति का अधिकार नहीं है --डॉ आंबेडकर

-- इस प्रश्न का उत्तर मेरे पहले लिखे गए कमेंट्स में है -

( १) कम से कम कौटिल्य के अर्थशास्त्र में तो ये वर्णित नहीं है दूसरा आंबेडकर जी की पुस्तक में भी लिखा है कि शूद्र सार्वभौमिक राजाओं के रतनी हुवा करते थे और उन्होंने ये भी लिखा है कि भीष्म ने युधिस्ठिर को राजनीति का पाठ पढ़ते हुए ये कहा कि मंत्रिमंडल में , कम से कम ३ शूद्र मंत्री होने चाहिए |
 


(२) डॉ बुचनन ने 1807 में प्रकशित अपनी पुस्तक में लिखा है कि -" यद्यपि तलुवा के ब्राम्हण ये कहते है कि यहाँ कि धरती के सच्चे मालिक वही हैं क्योंकि परशुराम ने ये धरती उनके लिए खोजी थी लेकिन यहाँ पर ज्यादातर जमीनों के मालिक शूद्र है और ब्राम्हणों का ये क्लेम न तो वर्तमान कि सच्चाई है और न भविष्य में कोई संभावना दिखती है | 

(3) बूचनान ने ये भी लिखा है कि जब गोवा मे पुर्तगाल के शासक का ये कट्टर आदेश आया कि यहाँ के सारे हिन्दुओ को ईसाई बना दिया जाय , तो गोवा का गोवेर्नर बहुत उदार हृदय था , जिसने वहाँ के लोगो को 10 दिन का समय दिया कि आप लोग चाहे तो अपनी चल संपत्ति लेकर प्रदेश छोड़कर जा सकते है , और इस तरह से धर्म परिवर्तन से बच सकते हैं - तो गोवा के धनी ब्रामहन और शूद्र गोवा को छोडकर कोकण मे आ बसे , बाकी जो लोग नहीं भाग पाये उनका इसाइयत मे जबर्दस्ती धर्म परिवर्तन कर दिया गया 

(४) शूद्रों को उपनयन यानि जनेऊ संस्कार का अधिकार नहीं है , डॉ आंबेडकर 

-- इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए आपको किसी ग्रन्थ या बुचनन जैसे विद्वानों को उद्धृत करने कि जरूरत नहीं है हालांकि अब तो तथकथित द्विजों ने भी जनेऊ पहनना बंद कर दिया है लेकिन अपने गावं में मैंने खुद तथाकथित menial शूद्र बुजुर्गों को जनेऊ धारण करते हुए देखा है आप भी देखे होंगे और नहीं देखे होंगे तो  मैं जब अपने गावं जाऊँगा अगले सप्ताह तो कइयों के फोटो खींच कर यही पर पोस्ट कर दूंगा  ( काश डॉ आंबेडकर ने गांधी कि तरह २- ३ साल गावों कि ओर रुख किया होता , राजनीति में पैर रखने के पूर्व तो वे इस भ्रमजाल के शिकार न बनते ) अभी कल कल ही मेरे वरिष्ठ , डॉ सुरेश मौर्य ने बताया कि उनके ससुर नियम बद्ध रूप से जनेऊ धारण करते हैं| 




अतः इस निर्णय पर पहुँचना बहुत आसान है कि डॉ अंबेडकर भारत के बारे मे बहुत सतही ज्ञान रखते थे , इसीलिए फर्जी कट्टर ईसाई संस्कृतज्ञों के जाल मे फँसकर अत्यंत भ्रामक निर्णय पर पहुंचे | 

उनके साथ मुझे सुहानीभूति है | 

No comments:

Post a Comment