#पुरुषसूक्त ऋग्वेद संहिता के दसवें मण्डल का एक प्रमुख सूक्त यानि मंत्र संग्रह (10.90) है, जिसमें एक विराट पुरुष की चर्चा हुई है और उसके अंगों का वर्णन है।इसका एक श्लोक है -
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१३॥
#श्लोक का भ्रामक असत्य अनुवाद है - ब्राह्मण मुख (मुख्य काम के लिए) हेतु, राजन्य (क्षत्रिय) वीर-बलों के कार्य हेतु, वैश्य उरु, अर्थात सर्व स्थान यात्रा और शूद्र पग यानि सेवा जैसे गुणों के लिए बने हैं।
यही श्लोक सुना सुना के ब्राम्हणो को गालियां दी जाती है लेकिन इसकी सच्चाई कोई नही बताता अरे भाई बता दिया तो दुकान कैसे चलेगी लेकिन आइये हम सभी इसका खंडन करते है -
सत्य : विराट स्वरूप परमेस्वर ने ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य,क्षत्रिय, सूर्य , चन्द्रमा,वायु ,प्राण, अग्नि,भूमि, दिशा, तीनो लोक, अंतरिक्ष प्रकट हुए | अतः स्पष्ट है | ये मंत्र ब्रह्मा कि सृष्टि के पहले के समय को दर्शाता है | जिससे स्पष्ट होता है | इस मंत्र से कालांतर में बने जाति वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है | कोई समूह अपने आप को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र बोले और कहे मैं शूद्र हूँ हास्यास्पद है | जैसे चन्द्रमा सूर्य प्राण अग्नि भूमि जीव से परे है | उसी प्रकार ये चार भी जीव से परे और प्रत्येक जीव के अंदर है | ये शूद्रत्व ब्राह्मणत्व क्षत्रित्व और शूद्रत्व जड़ चेतन सब प्राणी में पाए जाते है | क्या सूर्य से ऊर्जा केवल मनुष्य लेता है | क्या प्राण केवल मनुष्य में है | क्या वायु सिर्फ मनुष्य के लिए है | शूद्रत्व ब्राह्मणत्व क्षत्रित्व वैस्त्व सब जीव में व्याप्त है |
कोई भी जीव अपने आपको ब्राह्मण शूद्र वैश्य क्षत्रिय नहीं कह सकता है | जैसे कोई भी मनुष्य प्राण नहीं हो सकता है | कोई मनुष्य मन नहीं हो सकता है | अतः ब्राह्मण शूद्र वैश्य क्षत्रिय सब जीव में प्राण मन वायु जल की तरह सब में व्याप्त है | वेद सृष्टि के प्रारम्भ में लिखी गयी है | जबकि जाति का इतिहास मात्र २५०० से ३००० बर्ष का है | समूह सम्प्रदाय जाति इत्यादि वेद व्यस्था के खिलाफ है | जीव अकेला आता है और अकेला मरता है | दुःख सुख सब अकेला ही सहता है | पाप पुण्य का भागी खुद होता है | अतः ये मंत्र आज के बनाये गए समूह जाति अथवा सम्प्रदाय के बारे में नहीं बता रहा है |
#इसका व्याहारिक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र 12 पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
#यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
#इसका अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | ऋगवेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |
#इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
निष्कर्ष : मंत्र में विराट पुरुष के अंगो के परिकलपना करते हुए ब्राह्मण को विराट पुरुष का मुख , क्षत्रिय को भुजा ,वैश्य को जंघा और शूद्र को पैर माना गया है | चन्द्रमा को मन , सूर्य को नेत्र, वायु और प्राण को कान इत्यादि कहा गया है |
इस मन्त्र का आज के बनाये गए जाति प्रथा से कोई सम्बन्ध नहीं है |
ब्राह्मणोऽस्य मुखामासीद्वाहू राजन्यः कृतः। ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत॥१३॥
#श्लोक का भ्रामक असत्य अनुवाद है - ब्राह्मण मुख (मुख्य काम के लिए) हेतु, राजन्य (क्षत्रिय) वीर-बलों के कार्य हेतु, वैश्य उरु, अर्थात सर्व स्थान यात्रा और शूद्र पग यानि सेवा जैसे गुणों के लिए बने हैं।
यही श्लोक सुना सुना के ब्राम्हणो को गालियां दी जाती है लेकिन इसकी सच्चाई कोई नही बताता अरे भाई बता दिया तो दुकान कैसे चलेगी लेकिन आइये हम सभी इसका खंडन करते है -
सत्य : विराट स्वरूप परमेस्वर ने ब्राह्मण, शूद्र, वैश्य,क्षत्रिय, सूर्य , चन्द्रमा,वायु ,प्राण, अग्नि,भूमि, दिशा, तीनो लोक, अंतरिक्ष प्रकट हुए | अतः स्पष्ट है | ये मंत्र ब्रह्मा कि सृष्टि के पहले के समय को दर्शाता है | जिससे स्पष्ट होता है | इस मंत्र से कालांतर में बने जाति वर्ण से कोई सम्बन्ध नहीं है | कोई समूह अपने आप को ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र बोले और कहे मैं शूद्र हूँ हास्यास्पद है | जैसे चन्द्रमा सूर्य प्राण अग्नि भूमि जीव से परे है | उसी प्रकार ये चार भी जीव से परे और प्रत्येक जीव के अंदर है | ये शूद्रत्व ब्राह्मणत्व क्षत्रित्व और शूद्रत्व जड़ चेतन सब प्राणी में पाए जाते है | क्या सूर्य से ऊर्जा केवल मनुष्य लेता है | क्या प्राण केवल मनुष्य में है | क्या वायु सिर्फ मनुष्य के लिए है | शूद्रत्व ब्राह्मणत्व क्षत्रित्व वैस्त्व सब जीव में व्याप्त है |
कोई भी जीव अपने आपको ब्राह्मण शूद्र वैश्य क्षत्रिय नहीं कह सकता है | जैसे कोई भी मनुष्य प्राण नहीं हो सकता है | कोई मनुष्य मन नहीं हो सकता है | अतः ब्राह्मण शूद्र वैश्य क्षत्रिय सब जीव में प्राण मन वायु जल की तरह सब में व्याप्त है | वेद सृष्टि के प्रारम्भ में लिखी गयी है | जबकि जाति का इतिहास मात्र २५०० से ३००० बर्ष का है | समूह सम्प्रदाय जाति इत्यादि वेद व्यस्था के खिलाफ है | जीव अकेला आता है और अकेला मरता है | दुःख सुख सब अकेला ही सहता है | पाप पुण्य का भागी खुद होता है | अतः ये मंत्र आज के बनाये गए समूह जाति अथवा सम्प्रदाय के बारे में नहीं बता रहा है |
#इसका व्याहारिक अर्थ जानने के लिए इससे पहले मंत्र 12 पर गौर करना जरूरी है | वहां सवाल पूछा गया है – मुख कौन है?, हाथ कौन है?, जंघा कौन है? और पाँव कौन है? तुरंत बाद का मंत्र जवाब देता है – ब्राहमण मुख है, क्षत्रिय हाथ हैं, वैश्य जंघा हैं तथा शूद्र पैर हैं |
#यह ध्यान रखें की मंत्र यह नहीं कहता की ब्राह्मण मुख से “जन्म लेता” है … मंत्र यह कह रहा है की ब्राह्मण ही मुख है | क्योंकि अगर मंत्र में “जन्म लेता” यह भाव अभिप्रेत होता तो “मुख कौन है?” इत्यादि प्रश्नों का उत्तर देने की आवश्यकता ही नहीं थी |
#इसका अर्थ है – समाज में ब्राह्मण या बुद्धिजीवी लोग समाज का मस्तिष्क, सिर या मुख बनाते हैं जो सोचने का और बोलने का काम करे | बाहुओं के तुल्य रक्षा करने वाले क्षत्रिय हैं, वैश्य या उत्पादक और व्यापारीगण जंघा के सामान हैं जो समाज में सहयोग और पोषण प्रदान करते हैं (ध्यान दें ऊरू अस्थि या फिमर हड्डी शरीर में रक्तकोशिकाओं का निर्माण करती हैं और सबसे सुदृढ़ हड्डी होती है ) | ऋगवेद में ऊरू या जंघा के स्थान पर ‘मध्य’ शब्द का प्रयोग हुआ है | जो शरीर के मध्य भाग और उदर का द्योतक है | जिस तरह पैर शरीर के आधार हैं जिन पर शरीर टिक सके और दौड़ सके उसी तरह शूद्र या श्रमिक बल समाज को आधार देकर गति प्रदान करते हैं |
#इससे अगले मंत्र इस शरीर के अन्य भागों जैसे मन, आंखें इत्यादि का वर्णन करते हैं | पुरुष सूक्त में मानव समाज की उत्पत्ति और संतुलित समाज के लिए आवश्यक मूल तत्वों का वर्णन है |
यह अत्यंत खेदजनक है कि सामाजिक रचना के इतने अप्रतिम अलंकारिक वर्णन का गलत अर्थ लगाकर वैदिक परिपाटी से सर्वथा विरुद्ध विकृत स्वरुप में प्रस्तुत किया गया है |
निष्कर्ष : मंत्र में विराट पुरुष के अंगो के परिकलपना करते हुए ब्राह्मण को विराट पुरुष का मुख , क्षत्रिय को भुजा ,वैश्य को जंघा और शूद्र को पैर माना गया है | चन्द्रमा को मन , सूर्य को नेत्र, वायु और प्राण को कान इत्यादि कहा गया है |
इस मन्त्र का आज के बनाये गए जाति प्रथा से कोई सम्बन्ध नहीं है |
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