यह विधाता का कैसा क्रूर व्ययंग है , की प्रथम विदेशी राजा जिसने भारतीयों को गुलाम बनाया , जिसने इस्लाम के नाम पर पाश्विक अत्याचार कर दिल्ली के प्राचीन हिन्दू राजसिहांसन को अपवित्र किया , स्वम् एक गुलाम था , इसे पश्चिमी एशिया के इस्लामिक देशो में कई बार ख़रीदा बेचा गया था।
उसका नाम कुत्तूबुद्दीन ऐबक था , इतिहास तबकात – ए – नासिरी का कहना है की उसकी छोटी अंगुली तोड़ दी गयी थी , इसलिए इसका नाम ऐबक पड़ा था , ऐबक यानी ” हाथ से पंगु ” कुछ इतिहासकार विश्वाश करते है की ऐबक नाम की एक जाति की उपाधि होनी चाहिए , दूसरे कहते है की मूल पाठ का बयान सही नहीं हो सकता। इससे स्पष्ठ है की मुस्लिम इतिहास की पुस्तके झूठे बायनो की पिटारी है।
इन्ही झूठे इतिहासों पर आधारित इतिहास पुस्तके जनता और सरकार को पथभृष्ट करती है , की मुस्लिम शाशको और कुलीनों की लंबी वंश परंपरा जिन्होंने आतंक और अत्याचार की झड़ी लगा दी , जिसके हजार बर्षो के शाशन काल का हर एक दिन खून से चिपचिपा है , उस लंबी वंश परंपरा के सभी वंशज दयालु, न्यायी और सभ्य थे।
उदहारण के लिए इसी पंगु को लेते है , कुतुबुद्दीन ऐबक को — जो गुणों का प्रमाण-पत्र दिया जाता है उसे परखेंगे। फिर हम जांचेंगे की उसके गुणों का मिलान उसके जीवन चरित्र से होता है की नहीं।
तबकात के अनुसार —— ” सुल्तान कुतुबुद्दीन दूसरा हातिम था , वह एक बहादुर और उदार राजा था , पूरब से पश्चिम तक उसके समान कोई राजा नहीं था , जब भी सर्वशक्तिमान खुदा अपने लोगो के सामने महानता और भव्यता का नमूना पेश करना चाहते है , वे वीरता और उदारता के गुण अपने किसी एक गुलाम में भी भर देते है ‘ ‘ ‘ अतएव राजा दिलेर और दरियादिल था , और हिंदुस्तान के सारे क्षेत्र मित्रो यानि मुसलमानो से भर गए थे , और शत्रु ( मतलब हिन्दू ) साफ़ हो गए थे। उसकी लूट और कत्लेआम मुसलसल था।

इस उदारहण से स्पष्ठ है की मुस्लिम इतिहास और यतार्थ में सारे मुस्लमान हिंदुस्तान के हिन्दुओ के लगातार क़त्लेआम का ( स्पष्ठ ही इसमें स्त्रियों के बलात्कार उनकी सम्पति लूट , और उनके बच्चो का हरण भी शामिल है ) ऊँचे दर्जे की उदारता धार्मिकता , वीरता और महानता का काम मानते है। साम्प्रदायिकता से सरोबार और राजनीती से दुर्गन्धित भारतीय इतिहास ने बलात्कार , लूट , और हरण से अपनी आँखे मूंद ली है। उन्होंने केवल उन्ही शब्दो को जकड कर पकड़ रखा है की मुस्लिम शाशक उदार और कुलीन थे।
इसलिए हम हिन्दुओ को तो कम से कम अवश्य ही यह महसूस करना चहिये की बिना किसी एक अपवाद के भारत का प्रत्येक मुस्लिम शाशक नृशंस और अत्याचारी ही था , उसके दुष्कर्मो से मनुष्य ही नहीं पशु की गर्दन शर्म से झुक जाती है। हम हिन्दुओ को इनकी झूटी प्रस्तुति और मनगढंत गप्पबाजी में डुबकी नहीं लगानी चाहिए।
कुतुबुद्दीन एक गुलाम था , अब उसकी जन्मतिथि में कौन सिर खपाये ? इसलिए इतिहास को उसकी जन्मतिथि का ज्ञान नहीं है। इतिहास को सिर्फ इतना ज्ञान है की वो एक तुर्क था। उसके परिवार को मुस्लिम धर्म मानना पड़ा था , गुलामी से श्रापित उसे अनेक लोगो के साथ भेड़ की भांति बेचने के लिए हांका गया था।
इसका पहला खरीददार अज्ञात है , मगर उसे निमिषपुर में खरीदकर ओने पोन दामो में बेच दिया गया था , यहाँ उनसे एक काजी से कुरआन की शिक्षा भी ली , की किस प्रकार काफ़िर हिन्दुओ का कत्ल किया जाए।
कुरूप और ऊपर से पंगु होने के कारन काजी ने इसे एक सौदागर दल के हाथों बेच दिया , आज के व्यापारियों की भांति मुस्लिमो के पास काला धन तो नहीं था , किन्तु लाल धन अव्य्श्य था , जो उन्होंने हिन्दुओ का रक्त बहाकर इकठ्ठा किया था।
कुत्तुबउद्दीन अब किशोर अवस्था को प्राप्त कर रहा था , उसका मूल्य भी बढ़ रहा था , क्यू की उसकी डाका डालने , हत्या करने की क्षमता में वृद्धि हो रही थी।
भारत के सभी मुस्लिम बादशाह रात में ही नहीं , बल्कि दिन में भी शराब के नशे में आमोद और प्रमाद में , वासना में व्यतीत करते थे , उसी परंपरा में प्रायः गोरी भी ” संगीत और आनंद ” में डूब जाता था , एक रात उसने पार्टी दी और आनन्दोसत्व के बीच उसने नोकरो को सोने और चांदी के सिक्के बड़ी उदारता से दिए , उसमे से कुछ कुत्तुबउद्दीन ऐबक को भी मिले , जब कुतुबुद्दीन जब पहली बार गोरी की सेवा में आया था , उस समय तक उसके पास कोई उल्लेखनीय विवेक नही था , कोई भी काम कितना भी गन्दा व घिनोना क्यू ना हो , वह तैयार रहता था। इससे उसको नियमहीन स्वामी की कृपा प्राप्त हो गयी।
कुतुबुद्दीन एक घुड़सवार नायक था , और खुरासान के विरुद्ध युद्ध में भी उसे एक अभियान में भाग लेना पड़ा था , इसमें तीन शाशको ने भाग लिया था , गोर , गजनी , और बामियान। बामियान अफगानिस्तान में ही है , जहाँ बुद्ध की बहुत विशाल मूर्ति भी थी , इसे बाद में तालिबानियों ने उड़ा भी दिया था , अब इसका दुबारा निर्माण हुआ है , चीन की मदद से।
कुतुबुद्दीन ने इस अभियान के बाद के अभियानों के बाद के अभियानों में व्यावहारिक ज्ञान पाया , इससे उसे भारत में नृशंग और खूंखार चक्र चलाने में बहुत सहायता मिली।
सबसे पहली बार कुतुबुद्दीन ने ११६१ ईश्वी में भारत के मगध पर आक्रमण किया , सारे दुर्ग विदेशी मुसलमानो ने बनाये है
, इस प्रचलित इतिहास को झूठा साबित करता हुआ ” ताजुल-मा -आसिर ( पृष्ठ २१६ ग्रन्थ २ इलियट एवम डाउसन ) कहता है — ” जब वह मेरठ पहुंचा , जो सागर जितनी छोड़ी और गहरी खाई , बनावट और नींव की मजबूती के लिए भारत भर में एक प्रसिद्द दुर्ग था , तब उसके देश के आश्रित शाशको की भेजी हुई सेना उससे आकर मिल गयी , दुर्ग उनसे ले लिया गया , दुर्ग में एक कोतवाल की नियुक्ति की गयी , सभी मूर्ति मंदिरो को मस्जिद बना दिया गया )
कितने दुःख की बात है की प्रत्येक मुस्लमान इतिहासकार इस प्रकार बार बार जोरदार आवाज में घोषणा करता है की हिन्दू मंदिरो को , महलो को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया , इसके बावजूद फ़िल्मी भांड और सरकारी मुस्लिम चापलूस और भोली जनता का ढ्र्ढ्ता से यही मानना है की इन सबका निर्माण मुसलमानो ने किया।
एक मुस्लिमइतिहासकार कहता है की मेरठ लेने के बाद कुतुबुद्दीन दिल्ली की और बढ़ चला , जो ” सम्पति और स्रोत का आगार था। विदेशी मुस्लिम विजेता कुतिबुद्दिन ने उस शहर को विध्वंश कर नस्ट- भ्रस्ट कर दिया , शहर और उसके निकटवर्ती क्षेत्र को मूर्तिपूजको से मुक्त कर देव स्थान आदि जगहों पर मस्जिदों का निर्माण किया।
क़ुतुब मीनार —– आजकल दिल्ली में जिसे हम कुतुबमीनार कहते है , वह राजा विक्रमादित्य के राज्यकाल का प्राचिन हिंदी नक्षत्र निरिक्षण स्तम्भ है , जब कुतुबुद्दीन ने इसपर धावा किया था , तो इसके चारो और मजबूत दीवारे थी , विनाश के एक नंगे नाच के बाद जिसमे प्रतिमाओ को बाहर फेंक उसी मंदिर को क्वातुल इस्लाम की मस्जिद बनाया जा रहा था , कुतुबुद्दीन ने पूछा इसका मतलब क्या है ?// उसे अरबी भाषा में बताया गया की यह स्तम्भ एक क़ुतुब मीनार है , यानि उतरी धुव के निरिक्षण का केंद्र।
इस मुस्लिम लुटेरे ने केवल चार वर्ष शाशन किया , इस स्तम्भ के निर्माण के लिए केवल ४ वर्ष का समय पर्याप्त नहीं है , इस बात को अगर छोड़ भी दे, तो भी कुतुबुद्दीन ने कभी यह नहीं कहा की उसके इस स्तम्भ का निर्माता वो खुद है। दिल्ली विजय के बाद उसे पता चला की पृथ्वीराज चौहान के भाई हेमराज ने हिन्दू-स्वाधीनता का झंडा बुलन्द किया है , उसने मुस्लिम अधिकृत रणथम्बोर दुर्ग को घेर लिया , उसने अजमेर की और भी कुच करने की धमकी दी है , जहाँ की मुसलमानो से पराजित पृथ्वीराज के पुत्र का शाशन था , हेमराज के प्रयास तो सफल नहीं हुए , मगर कुतुबुद्दीन ने इसका खूब फायदा उठाया , उसने अधिक से अधिक धन पृथ्वीराज के पुत्र से निचोड़ा , पृथ्वीराज चौहान का कायर पुत्र भी इसकी धमकियों से डर इस नीच को मालामाल कर दिया। ३ सोने से बने तरबूज कुटूबुद्दीन ऐबक को भिजवाये गए , अब इससे पता चलता है , की इन अरबियो और मुस्लमान शाशको के पास इतना धन आया कहाँ से।
अभी अजमेर में मुस्लिम शक्ति का सिक्का जमा ही था की दिल्ली के हिन्दू शाशक , ने जिसे हटाकर मुसलमानो ने दिल्ली छीनी थी , उसने अपनी सेना एकत्रित कर ली है , और वह सीधा कुतुबुदीन की और बढ़ चला आ रहा है , घिर जाने के डर से कुतुबुद्दीन अजमेर से बाहर निकल आया — घमासान युद्ध हुआ , दिल्ली का राजपूत शाशक वीरता से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ कायर मुसलमानो ने ” धड़ से उसके सिर को तरास दिया , और उसकी राजधानी और निवाश स्थान दिल्ली भेज दिया , इसके बाद अपनी सफलता का लंबा चौड़ा विवरण उसने गजनी भी भिजवाया , वहां से उसको गोरी का निमंत्रण मिला , अपने स्वामी का निमंत्रण पाकर कुतुबुद्दीन दूर गजनी पहुंचा , उसके आगमन पर एक उत्सव का आयोजन किया गया , और उपहार के रूप में बहुमूल्य रत्न और प्रचुर धन उसे प्राप्त हुआ ,
मगर कुतुबुद्दीन इस महान सम्मानजनक भोज का उपयोग नहीं कर पाया , और वह बीमार पड़ गया , वह दरबार के मंत्री जिया-उल-मुल्क के साथ ठहरा हुआ था , संभव है उसी ने जलन से इसे जहर दे दिया हो , बाद में इसे गौरी के मेहमानखाने में लाया गया , अभी भी वह स्वस्थ महसूस नहीं कर रहा था , उसने हिंदुस्तान वापस लौटने का निर्णय किया।
वापस लौटने के समय इसने काबुल और बन्नू के बिच बंगाल देश के कारमन नाम के एक स्थान पर अपना पड़ाव डाला , वहां के मुखिया को धमकाकर उसकी पुत्री के अपने घ्रणित गुलामी के हरम में घसीट लिया गया , दिल्ली लौटकर अपने पुराने इस्लामी स्वाभाव से जनता को सताने लगा , ११६४ में उसने वाराणसी की और कूच किया — ताजुल-मा- आसिर के अनुसार ___ कोल हिन्द का सर्वाधिक विख्यात दुर्ग था , वहां की रक्षक टुकड़ी में जो बुद्धिमान थे , उनका इस्लाम धर्म में परिवर्तन हुआ , मगर जो प्राचीन धर्म में डटे रहे, उन्हें हलाल कर दिया गया , अब इससे यह तो स्पष्ठ है की भारत के मुस्लमान उन्ही कायरो की औलाद है। जिनके माँ बाप को सता सता कर मुस्लमान बनाया गया है।
मुस्लिम गिरोह ने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भरपूर खजाना और अनगिनत लूट का माल जमा किया , जिसमे एक हजार घोड़े भी थे , यह सब मुसलमानो का चरित्र ही तो प्रदशित करते है। मुस्लिम इतिहासकार लेकिन यह लिखने के कतरा जाता है की इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया , मुस्लिम धावे के बड़े नुक्सान को झेलकर भी अविजित खड़ा रहा। इस घटना को जीत जरूर बताते है , मगर आगे के इतिहास में बार बार मुस्लिम उसी दुर्ग पर हमले भी करते है ,
इसी बीच गोरी मुस्लिम लुटेरो का एक गिरोह भारत में घुस आया , अपनी गुलामी के नजराने के तोर पर स्वेत चांदी और सोने से लदा हांथी और १००० घोड़े उपहार स्वरुप दिए गए , इन सब धन को हिन्दू घरो से ही लुटा गया था कैसी विडम्बना है की एक डाकू , अपने डाकू सरदार को अपनी पाप की कमाई नजराना भेंट दे रहा है। यह दोनों सेनाये मिलकर मुस्लिम गिरोहों का विशाल डाकूदल तैयार हो गया , इसमें पचास हजार तो सिर्फ घुड़सवार सेना ही थी , अब पैदल सेना का अनुमान लगा लीजिये , जिसमे पूर्व हिन्दू भी शामिल थे , जिन्हें कोड़े की मार और तलवार की धार पर मुस्लमान बनाया गया था ,
#जयचंद – कुतुबुद्दीन जो की गोरी का गुलाम मात्र था , और भारत के हिन्दुओ पर एक गुलाम अत्याचार कर रहा था , गोरी ने अपनी एक सेना की टुकड़ी भेज दी , इस सेना का काम था असुरक्षित नगरो को लूटना , खलियानो को जला देना , कड़ी फसल कुचल देना , जलाशयों में जहर घोल देना , हिन्दू स्त्रियों को मुसलमानो के हरम में बाल पकड़ कर घसीट के लाना , हिन्दुओ के मंदिरो को अपवित्र करना , और आने वाली हिन्दू रुकावटो को हलाल कर देना , अपना पूरा काम कर कुतुबुद्दीन वापस लौटकर गौरी से आ मिला।
जैचंद का विरोधी राजा पृथ्वीराज था , उसका राज्य कन्नौज से वाराणसी तक फैला हुआ था , वीर पृथ्वीराज से लड़ने के लिए धोखेबाज लालची और विदेशी मल्लेछो को भारत आने पर पृथ्वीराज की मदद न कर भारी भूल की , यह अब हक्का बक्का होकर देख रहा था , की मुस्लमान तो हर हिन्दू का ही शत्रु है , एक एक को नष्ठ करना ही मुसलमानो का परम कर्तव्य है , जैचंद ने देखा की मुस्लिम सुल्तान उसके फलते फूलते क्षेत्रो को ही रौंदकर संतुष्ठ नहीं है , बल्कि उसको बंदी बनाकर मारने पर तुला हुआ है ,
विश्वश्घाती मुस्लिम दोस्त की धोखेबाजी से कुपित हो जैचंद अपनी सेना लेकर उससे जा टकराया , विषाक्त मुस्लिम बाण से वह होदे से नीचे गिर गया , भाले की नोक पर उस मादरचोद के सिर को उठाकर सेनापति के पास लाया गया , उसके शरीर को घ्रणा की धूल में मिला दिया गया , तलवार की धार से बुतपरस्ती को साफ़ किया गया। और देश को अधर्म और अन्धविश्वाश से मुक्त किया। ठाठ के साथ हर मुसलमान यह कहते हुए नहीं शरमाता।
” बेशुमार लूट मिली , कई सो हांथी कब्जे में आये , और मुस्लिम सेना ने उसके दुर्ग को भी कब्जे में ले लिया , जहाँ राय का खजाना था।
जयचंद हार गया —- मारा गया , वाराणसी का प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर असुरक्षित हो गया , मुस्लिम सेना वाराणसी की और बढ़ी , एक हजार मंदिरो को मस्जिद बना दिया गया , यह वाराणसी में उनकी दूसरी पवित्र लूट और ह्त्या थी। पहली बार मुहम्मद गजनवी की मौत के तुरंत बाद अहमद नाम के मुसलमान ने इसे लुटा था। सिर्फ औरन्जेब को ही पवित्र वाराणसी का विनाश का कारण बताना बेकार है , जिस भी मुस्लिम ने यहाँ प्रवेश किया , इस पावन नगरी के मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाया ,,,
मुस्लिम सुंवरो की इस बढ़ती कतार में खुद अकबर भी है।
जब जब वाराणसी पर आक्रमण हुआ , यहब के प्रसिद्द काशी-विश्वनाथ के मंदिर को लुटा गया , मगर हिन्दुओ ने बार बार एकता दिखाकर कम से कम इस मंदिर को तो आजाद रखा ,, लेकिन कब तक —- औरन्गजेब ने इसे तोड़कर आखिर मस्जिद बना ही दिया। और यह कब तक मस्जिद बना रहता है , यह हमारी मर्दाग्नि पर निर्भर करता है।
आस पास के क्षेत्रो पर भी इन मुसलमानो अत्याचार और आतंक का नंगा नाच हुआ , इसके बाद मुहम्मद गोरी वापस गजनी लौट गया। अब तक यह कोल को जीत नहीं सके थे ,अतः पंगु मुस्लमान कुत्तूबुद्दीन ने वाराणसी से लौटते समय दुबारा इसपर आक्रमण किया , इस बार यहाँ सभी हिन्दुओ को खत्म कर दिया गया , या मुसलमान बना दिया गया
११६२ में मुहम्मद गोरी फिर भारत आया , कुत्तूबुद्दीन फिर उसकी सेना से जा मिलता है , दोनों मुसलमान मिलकर हिन्दुओ के दुर्ग बयाना को घेर लेते है , मगर यहाँ सेना से लड़ने की जगह मुसलमान ओरतो और बच्चो पर अपनी बहादुरी दिखाते है अपनी संकटग्रस्त प्रजा को बचाने के लिए कुंवर पाल आत्मसमर्पण कर देते है।
अब इन मुसलमानो का काफिला ग्वालियर की और बढ़ा , इसका शाशक सुलक्षण पाल था , इसने ऐसा संग्राम किया की गोरी का सारा गौरव चकनाचूर हो गया , उसे वापस बमुश्किल जान बचाकर भागना पड़ा , इस डूब मरने वाली हार को मुसलमान झूठे इतिहासकरो ने गाल बजाकर ढकने का प्रयास किया है , इस युद्ध के बाद गौरी तो भागकर गजनी पहुँच गया , और ऐबक दिल्ली।
प्रायः इसी समय देशभक्त हिन्दू सेना एकत्रित होने लगी थी , विदेशी मुसलमानो को ललकारा गया , पंगु चारो और से घिर गया , जीवन समाप्ति की और ही था , यहाँ से उसने सारे खलीफाओं को सन्देश भेज दिया , बहुत विशाल सेना आयी भी , किन्तु वापस एक भी नहीं लौटा , हिन्दुओ ने सभी को जमीन में गाड़ दिया , फिर जैसे तैसे कुतुबुद्दीन अपनी जान बचाकर भागा।
अन्हिलवाड़ शाशक के कुशल नेतृत्व में हिन्दू सेना फिर एकत्र हो गयी थी , फिर मुस्लिम शाशको को ललकारा गया इस बार भी जीवन लीला समाप्त होने को ही थी , की कमबख्त दिल्ली भाग खड़ा हुआ , उसने ताबड़तोड़ अपने मालिक मुहम्मद गोरी से सहायता की मांग की , गोरी का भोजन और आहार लूट ही था , कुतुबुद्दीन इसे हिंदुस्तान से इकट्ठा करके गजनी भेजता था , अतः उसने देखा की कुतुबुदीन की समाप्ति के बाद तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा , लुटेरो का एक विशाल गिरोह उसने अन्हिलवाड़ भेज दिया , आबू पर्वत के निचे संकर्रे रास्ते पर राय कर्ण और अन्य राजपूत राजाओ के अधीन एक शशक्त हिन्दू सेना तैयार थी।
उस सशक्त स्तिथि में आक्रमण करने का साहस मुसलमान नहीं बटोर सके , विशेषकर उसी स्थान पर बार बार गोरी भी बहुत बार मार खा कर गया था , अतः मारे भय के वह पीछे ही डटे रहे , तब हिन्दू सेनाओ ने अपने पर्वतीय स्थानों को छोड़ दिया, और मुस्लिम सेना उनपर टूट पड़ी , खुले मैदानों में आमने सामने की लड़ाई हुई , हमेशा की तरह मुसलमानो ने विजय का दावा किया है , परंतु इस पंक्तियों को पढ़ने के बाद पता चलता है , की मुस्लिम सेना ने हारकर अजमेर में शरण ली , और फिर दिल्ली लौट गयी।
अशिक्षित दरबारों में चक्कर काटने वाले खुशामदी लेखक मोटी रकम लेकर हार को जीत लिखने के लिए तैयार ही बैठे थे , इसलिए हम हिन्दुओ और साधारण जनता को इनके झूठ के प्रति जागरूक हो जाना चाहिए , इन लोगो का वास्तविक निर्णय स्वम् ही निकाला जाना चाहिए।
१२०२ में एक दूसरे युद्ध में पालतू गुलाम अल्ततमश के साथ कुतुबुद्दीन ने कालिंजर दुर्ग घेर लिया , यह दुर्ग परमार राजाओ की राजधानी था , सदा की भाँती चापलूस मुस्लिम इतिहासकार दावा करते है की हिन्दू राजा पराजित हुआ, और भाग गया। और कर आदि देने की संधि होने के बाद राज्य राजा को लौटा दिया गया , किन्तु आगे वह यह भी जोड़ देता है की उसने स्वाभाविक म्रत्यु पायी , और शांति संधि की किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया। इन तथ्यों से साफ़ पता चलता है , की कालिंजर से भी कुतुबुद्दीन हार कर ही लौटा।
हालांकि हमेशा की भाँती अपनी हार की मार छिपाने के लिए पालतू मुस्लिम इतिहासकारो ने इस मुठभेड़ पर अपनी मुस्लिम जीत का रंग चढाने का पूरा प्रयास किया है।
दूसरी बार फिर बड़ी सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण हुआ , इस बार की स्थायी सेना में हजारो मुसलमानो का ही नहीं , वरन नए विदेशी मुस्लिम लुटेरो को भी भरा गया , मृत शाशक के मुख्यमंत्री अजदेव ने बड़ी वीरता से दुर्ग की रक्षा की।
बाद में दुर्ग आतंक , माया , और धोखे से कब्जे में हुआ , फिर सदा की भांति मंदिरो को मस्जिद बनाया गया , और बुतो ( देवी – प्रतिमाओ ) का नामोनिशान तक मिटा दिया , पचासहजार लोगो के गले में गुलामी का फंदा डाला गया , और हिन्दुओ के रक्त से सारी भूमि रंजित हो गयी इस तरह इस्लाम के नाम पर गुलामी के गीत गाये गए , और गुलामी के नाम पर इस्लाम की शोभा बढ़ाई गयी।
अब कुतुबुद्दीन महोबा से जा टकराया , मगर इतिहासकारो की चुप्पी से साबित होता है की वहां उन लुटेरो को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा था , इसी प्रकार का एक प्रयास बंदायू पर भी किया गया , जो नगरो की जननी और हिन्द देश के प्रमुख नगरो में से एक था , इसलिए हिन्दुओ को बेवकूफी से भरा यह विचार दिमाग़ से एकदम निकाल देना चाहिए की इन नगरो का निर्माण मुसलमानो ने किया है , वरन इसके विपरीत मुसलमानो ने इसे नस्ट और बर्बाद ही किया है। बंदायू अभियान भी बड़ी बुरी तरीके से कुचला गया था।
इसी समय एक दूसरा मुस्लिम पिसाच कुतुबुद्दीन के गिरोह में आ मिला। वह एक शैतान लुटेरा और पालतू गुलाम था , बाद में इसी ने पूर्वी बिहार के साथ साथ नालंदा का भी नाश किया। इससे पहले इसकी हिन्दुओ की हत्या , नर-संघार , और लूट की शक्ति को नापा , और परखा गया , संतोषजनक पाने पर इसे मुहम्मद गोरी ने गुलाम गिरोह नेताओ के केबिनेट का सदश्य बना लुटेरे दल में शामिल कर दिया। ( बख्तियार खिलजी )
महोबा और बंदायू में हिन्दू तलवारो से हुए घावों को चाटता भीगी बिल्ली सा कुतुबुद्दीन दिल्ली वापस लोटा , १२०३ में भारत पर अपने घावों के क्रम को कायम रखते हुए , गजनी से चला , मार्ग में खिता की हिन्दू सेना ने इसे रोककर ललकारा , अनखुद की सीमा पर संग्राम छिड़ गया , परिणाम में गोरी को बुरी तरह कुचलकर हराया गया , वह भय से काँपता मैदान से भाग खड़ा हुआ , अपवाह तो यहाँ तक थी, की वह युद्ध में ही मारा गया , इस भगदड़ में उसने एक महत्वकांशी गुलाम ऐबक ने मौके को सुंघा , और एक टोली लेकर वह मुल्तान पहुँच गया , फिर गर्वनर के कानो में गुप्त सुचना देने के बहाने उसकी हत्या कर दी।
कुतुबुद्दीन और उसके स्वामी गौरी को कई बार भारत के वीर देशभक्त हिन्दुओ ने कई बार हराया था , अतः अब उसमे इतना साहस नहीं था , की सीधे हिन्दुओ से जा भिड़े , जब तक गोरी का सर कटकर नहीं गिरा, तब तक कुत्तूबुद्दीन गोरी का एक पालतू कुत्ता ही था ,
नवम्बर १२१० ईश्वी के प्रारंभिक दिनों में लाहौर में चौगान खेलते समय कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर गया , घोड़े की जीन के पायदान का नुकीला भाग उसकी छाती में धंस गया , और मर गया , यह दारुन और दोगला मुस्लिम पशु एक पशु के हाथ से ही मारा गया।
उसका नाम कुत्तूबुद्दीन ऐबक था , इतिहास तबकात – ए – नासिरी का कहना है की उसकी छोटी अंगुली तोड़ दी गयी थी , इसलिए इसका नाम ऐबक पड़ा था , ऐबक यानी ” हाथ से पंगु ” कुछ इतिहासकार विश्वाश करते है की ऐबक नाम की एक जाति की उपाधि होनी चाहिए , दूसरे कहते है की मूल पाठ का बयान सही नहीं हो सकता। इससे स्पष्ठ है की मुस्लिम इतिहास की पुस्तके झूठे बायनो की पिटारी है।
इन्ही झूठे इतिहासों पर आधारित इतिहास पुस्तके जनता और सरकार को पथभृष्ट करती है , की मुस्लिम शाशको और कुलीनों की लंबी वंश परंपरा जिन्होंने आतंक और अत्याचार की झड़ी लगा दी , जिसके हजार बर्षो के शाशन काल का हर एक दिन खून से चिपचिपा है , उस लंबी वंश परंपरा के सभी वंशज दयालु, न्यायी और सभ्य थे।
उदहारण के लिए इसी पंगु को लेते है , कुतुबुद्दीन ऐबक को — जो गुणों का प्रमाण-पत्र दिया जाता है उसे परखेंगे। फिर हम जांचेंगे की उसके गुणों का मिलान उसके जीवन चरित्र से होता है की नहीं।
तबकात के अनुसार —— ” सुल्तान कुतुबुद्दीन दूसरा हातिम था , वह एक बहादुर और उदार राजा था , पूरब से पश्चिम तक उसके समान कोई राजा नहीं था , जब भी सर्वशक्तिमान खुदा अपने लोगो के सामने महानता और भव्यता का नमूना पेश करना चाहते है , वे वीरता और उदारता के गुण अपने किसी एक गुलाम में भी भर देते है ‘ ‘ ‘ अतएव राजा दिलेर और दरियादिल था , और हिंदुस्तान के सारे क्षेत्र मित्रो यानि मुसलमानो से भर गए थे , और शत्रु ( मतलब हिन्दू ) साफ़ हो गए थे। उसकी लूट और कत्लेआम मुसलसल था।

इस उदारहण से स्पष्ठ है की मुस्लिम इतिहास और यतार्थ में सारे मुस्लमान हिंदुस्तान के हिन्दुओ के लगातार क़त्लेआम का ( स्पष्ठ ही इसमें स्त्रियों के बलात्कार उनकी सम्पति लूट , और उनके बच्चो का हरण भी शामिल है ) ऊँचे दर्जे की उदारता धार्मिकता , वीरता और महानता का काम मानते है। साम्प्रदायिकता से सरोबार और राजनीती से दुर्गन्धित भारतीय इतिहास ने बलात्कार , लूट , और हरण से अपनी आँखे मूंद ली है। उन्होंने केवल उन्ही शब्दो को जकड कर पकड़ रखा है की मुस्लिम शाशक उदार और कुलीन थे।
इसलिए हम हिन्दुओ को तो कम से कम अवश्य ही यह महसूस करना चहिये की बिना किसी एक अपवाद के भारत का प्रत्येक मुस्लिम शाशक नृशंस और अत्याचारी ही था , उसके दुष्कर्मो से मनुष्य ही नहीं पशु की गर्दन शर्म से झुक जाती है। हम हिन्दुओ को इनकी झूटी प्रस्तुति और मनगढंत गप्पबाजी में डुबकी नहीं लगानी चाहिए।
कुतुबुद्दीन एक गुलाम था , अब उसकी जन्मतिथि में कौन सिर खपाये ? इसलिए इतिहास को उसकी जन्मतिथि का ज्ञान नहीं है। इतिहास को सिर्फ इतना ज्ञान है की वो एक तुर्क था। उसके परिवार को मुस्लिम धर्म मानना पड़ा था , गुलामी से श्रापित उसे अनेक लोगो के साथ भेड़ की भांति बेचने के लिए हांका गया था।
इसका पहला खरीददार अज्ञात है , मगर उसे निमिषपुर में खरीदकर ओने पोन दामो में बेच दिया गया था , यहाँ उनसे एक काजी से कुरआन की शिक्षा भी ली , की किस प्रकार काफ़िर हिन्दुओ का कत्ल किया जाए।
कुरूप और ऊपर से पंगु होने के कारन काजी ने इसे एक सौदागर दल के हाथों बेच दिया , आज के व्यापारियों की भांति मुस्लिमो के पास काला धन तो नहीं था , किन्तु लाल धन अव्य्श्य था , जो उन्होंने हिन्दुओ का रक्त बहाकर इकठ्ठा किया था।
कुत्तुबउद्दीन अब किशोर अवस्था को प्राप्त कर रहा था , उसका मूल्य भी बढ़ रहा था , क्यू की उसकी डाका डालने , हत्या करने की क्षमता में वृद्धि हो रही थी।
भारत के सभी मुस्लिम बादशाह रात में ही नहीं , बल्कि दिन में भी शराब के नशे में आमोद और प्रमाद में , वासना में व्यतीत करते थे , उसी परंपरा में प्रायः गोरी भी ” संगीत और आनंद ” में डूब जाता था , एक रात उसने पार्टी दी और आनन्दोसत्व के बीच उसने नोकरो को सोने और चांदी के सिक्के बड़ी उदारता से दिए , उसमे से कुछ कुत्तुबउद्दीन ऐबक को भी मिले , जब कुतुबुद्दीन जब पहली बार गोरी की सेवा में आया था , उस समय तक उसके पास कोई उल्लेखनीय विवेक नही था , कोई भी काम कितना भी गन्दा व घिनोना क्यू ना हो , वह तैयार रहता था। इससे उसको नियमहीन स्वामी की कृपा प्राप्त हो गयी।
कुतुबुद्दीन एक घुड़सवार नायक था , और खुरासान के विरुद्ध युद्ध में भी उसे एक अभियान में भाग लेना पड़ा था , इसमें तीन शाशको ने भाग लिया था , गोर , गजनी , और बामियान। बामियान अफगानिस्तान में ही है , जहाँ बुद्ध की बहुत विशाल मूर्ति भी थी , इसे बाद में तालिबानियों ने उड़ा भी दिया था , अब इसका दुबारा निर्माण हुआ है , चीन की मदद से।
कुतुबुद्दीन ने इस अभियान के बाद के अभियानों के बाद के अभियानों में व्यावहारिक ज्ञान पाया , इससे उसे भारत में नृशंग और खूंखार चक्र चलाने में बहुत सहायता मिली।
सबसे पहली बार कुतुबुद्दीन ने ११६१ ईश्वी में भारत के मगध पर आक्रमण किया , सारे दुर्ग विदेशी मुसलमानो ने बनाये है
, इस प्रचलित इतिहास को झूठा साबित करता हुआ ” ताजुल-मा -आसिर ( पृष्ठ २१६ ग्रन्थ २ इलियट एवम डाउसन ) कहता है — ” जब वह मेरठ पहुंचा , जो सागर जितनी छोड़ी और गहरी खाई , बनावट और नींव की मजबूती के लिए भारत भर में एक प्रसिद्द दुर्ग था , तब उसके देश के आश्रित शाशको की भेजी हुई सेना उससे आकर मिल गयी , दुर्ग उनसे ले लिया गया , दुर्ग में एक कोतवाल की नियुक्ति की गयी , सभी मूर्ति मंदिरो को मस्जिद बना दिया गया )
कितने दुःख की बात है की प्रत्येक मुस्लमान इतिहासकार इस प्रकार बार बार जोरदार आवाज में घोषणा करता है की हिन्दू मंदिरो को , महलो को मस्जिद में परिवर्तित कर दिया गया , इसके बावजूद फ़िल्मी भांड और सरकारी मुस्लिम चापलूस और भोली जनता का ढ्र्ढ्ता से यही मानना है की इन सबका निर्माण मुसलमानो ने किया।
एक मुस्लिमइतिहासकार कहता है की मेरठ लेने के बाद कुतुबुद्दीन दिल्ली की और बढ़ चला , जो ” सम्पति और स्रोत का आगार था। विदेशी मुस्लिम विजेता कुतिबुद्दिन ने उस शहर को विध्वंश कर नस्ट- भ्रस्ट कर दिया , शहर और उसके निकटवर्ती क्षेत्र को मूर्तिपूजको से मुक्त कर देव स्थान आदि जगहों पर मस्जिदों का निर्माण किया।
क़ुतुब मीनार —– आजकल दिल्ली में जिसे हम कुतुबमीनार कहते है , वह राजा विक्रमादित्य के राज्यकाल का प्राचिन हिंदी नक्षत्र निरिक्षण स्तम्भ है , जब कुतुबुद्दीन ने इसपर धावा किया था , तो इसके चारो और मजबूत दीवारे थी , विनाश के एक नंगे नाच के बाद जिसमे प्रतिमाओ को बाहर फेंक उसी मंदिर को क्वातुल इस्लाम की मस्जिद बनाया जा रहा था , कुतुबुद्दीन ने पूछा इसका मतलब क्या है ?// उसे अरबी भाषा में बताया गया की यह स्तम्भ एक क़ुतुब मीनार है , यानि उतरी धुव के निरिक्षण का केंद्र।
इस मुस्लिम लुटेरे ने केवल चार वर्ष शाशन किया , इस स्तम्भ के निर्माण के लिए केवल ४ वर्ष का समय पर्याप्त नहीं है , इस बात को अगर छोड़ भी दे, तो भी कुतुबुद्दीन ने कभी यह नहीं कहा की उसके इस स्तम्भ का निर्माता वो खुद है। दिल्ली विजय के बाद उसे पता चला की पृथ्वीराज चौहान के भाई हेमराज ने हिन्दू-स्वाधीनता का झंडा बुलन्द किया है , उसने मुस्लिम अधिकृत रणथम्बोर दुर्ग को घेर लिया , उसने अजमेर की और भी कुच करने की धमकी दी है , जहाँ की मुसलमानो से पराजित पृथ्वीराज के पुत्र का शाशन था , हेमराज के प्रयास तो सफल नहीं हुए , मगर कुतुबुद्दीन ने इसका खूब फायदा उठाया , उसने अधिक से अधिक धन पृथ्वीराज के पुत्र से निचोड़ा , पृथ्वीराज चौहान का कायर पुत्र भी इसकी धमकियों से डर इस नीच को मालामाल कर दिया। ३ सोने से बने तरबूज कुटूबुद्दीन ऐबक को भिजवाये गए , अब इससे पता चलता है , की इन अरबियो और मुस्लमान शाशको के पास इतना धन आया कहाँ से।
अभी अजमेर में मुस्लिम शक्ति का सिक्का जमा ही था की दिल्ली के हिन्दू शाशक , ने जिसे हटाकर मुसलमानो ने दिल्ली छीनी थी , उसने अपनी सेना एकत्रित कर ली है , और वह सीधा कुतुबुदीन की और बढ़ चला आ रहा है , घिर जाने के डर से कुतुबुद्दीन अजमेर से बाहर निकल आया — घमासान युद्ध हुआ , दिल्ली का राजपूत शाशक वीरता से लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ कायर मुसलमानो ने ” धड़ से उसके सिर को तरास दिया , और उसकी राजधानी और निवाश स्थान दिल्ली भेज दिया , इसके बाद अपनी सफलता का लंबा चौड़ा विवरण उसने गजनी भी भिजवाया , वहां से उसको गोरी का निमंत्रण मिला , अपने स्वामी का निमंत्रण पाकर कुतुबुद्दीन दूर गजनी पहुंचा , उसके आगमन पर एक उत्सव का आयोजन किया गया , और उपहार के रूप में बहुमूल्य रत्न और प्रचुर धन उसे प्राप्त हुआ ,
मगर कुतुबुद्दीन इस महान सम्मानजनक भोज का उपयोग नहीं कर पाया , और वह बीमार पड़ गया , वह दरबार के मंत्री जिया-उल-मुल्क के साथ ठहरा हुआ था , संभव है उसी ने जलन से इसे जहर दे दिया हो , बाद में इसे गौरी के मेहमानखाने में लाया गया , अभी भी वह स्वस्थ महसूस नहीं कर रहा था , उसने हिंदुस्तान वापस लौटने का निर्णय किया।
वापस लौटने के समय इसने काबुल और बन्नू के बिच बंगाल देश के कारमन नाम के एक स्थान पर अपना पड़ाव डाला , वहां के मुखिया को धमकाकर उसकी पुत्री के अपने घ्रणित गुलामी के हरम में घसीट लिया गया , दिल्ली लौटकर अपने पुराने इस्लामी स्वाभाव से जनता को सताने लगा , ११६४ में उसने वाराणसी की और कूच किया — ताजुल-मा- आसिर के अनुसार ___ कोल हिन्द का सर्वाधिक विख्यात दुर्ग था , वहां की रक्षक टुकड़ी में जो बुद्धिमान थे , उनका इस्लाम धर्म में परिवर्तन हुआ , मगर जो प्राचीन धर्म में डटे रहे, उन्हें हलाल कर दिया गया , अब इससे यह तो स्पष्ठ है की भारत के मुस्लमान उन्ही कायरो की औलाद है। जिनके माँ बाप को सता सता कर मुस्लमान बनाया गया है।
मुस्लिम गिरोह ने दुर्ग में प्रविष्ट होकर भरपूर खजाना और अनगिनत लूट का माल जमा किया , जिसमे एक हजार घोड़े भी थे , यह सब मुसलमानो का चरित्र ही तो प्रदशित करते है। मुस्लिम इतिहासकार लेकिन यह लिखने के कतरा जाता है की इस दुर्ग पर अधिकार कर लिया , मुस्लिम धावे के बड़े नुक्सान को झेलकर भी अविजित खड़ा रहा। इस घटना को जीत जरूर बताते है , मगर आगे के इतिहास में बार बार मुस्लिम उसी दुर्ग पर हमले भी करते है ,
इसी बीच गोरी मुस्लिम लुटेरो का एक गिरोह भारत में घुस आया , अपनी गुलामी के नजराने के तोर पर स्वेत चांदी और सोने से लदा हांथी और १००० घोड़े उपहार स्वरुप दिए गए , इन सब धन को हिन्दू घरो से ही लुटा गया था कैसी विडम्बना है की एक डाकू , अपने डाकू सरदार को अपनी पाप की कमाई नजराना भेंट दे रहा है। यह दोनों सेनाये मिलकर मुस्लिम गिरोहों का विशाल डाकूदल तैयार हो गया , इसमें पचास हजार तो सिर्फ घुड़सवार सेना ही थी , अब पैदल सेना का अनुमान लगा लीजिये , जिसमे पूर्व हिन्दू भी शामिल थे , जिन्हें कोड़े की मार और तलवार की धार पर मुस्लमान बनाया गया था ,
#जयचंद – कुतुबुद्दीन जो की गोरी का गुलाम मात्र था , और भारत के हिन्दुओ पर एक गुलाम अत्याचार कर रहा था , गोरी ने अपनी एक सेना की टुकड़ी भेज दी , इस सेना का काम था असुरक्षित नगरो को लूटना , खलियानो को जला देना , कड़ी फसल कुचल देना , जलाशयों में जहर घोल देना , हिन्दू स्त्रियों को मुसलमानो के हरम में बाल पकड़ कर घसीट के लाना , हिन्दुओ के मंदिरो को अपवित्र करना , और आने वाली हिन्दू रुकावटो को हलाल कर देना , अपना पूरा काम कर कुतुबुद्दीन वापस लौटकर गौरी से आ मिला।
जैचंद का विरोधी राजा पृथ्वीराज था , उसका राज्य कन्नौज से वाराणसी तक फैला हुआ था , वीर पृथ्वीराज से लड़ने के लिए धोखेबाज लालची और विदेशी मल्लेछो को भारत आने पर पृथ्वीराज की मदद न कर भारी भूल की , यह अब हक्का बक्का होकर देख रहा था , की मुस्लमान तो हर हिन्दू का ही शत्रु है , एक एक को नष्ठ करना ही मुसलमानो का परम कर्तव्य है , जैचंद ने देखा की मुस्लिम सुल्तान उसके फलते फूलते क्षेत्रो को ही रौंदकर संतुष्ठ नहीं है , बल्कि उसको बंदी बनाकर मारने पर तुला हुआ है ,
विश्वश्घाती मुस्लिम दोस्त की धोखेबाजी से कुपित हो जैचंद अपनी सेना लेकर उससे जा टकराया , विषाक्त मुस्लिम बाण से वह होदे से नीचे गिर गया , भाले की नोक पर उस मादरचोद के सिर को उठाकर सेनापति के पास लाया गया , उसके शरीर को घ्रणा की धूल में मिला दिया गया , तलवार की धार से बुतपरस्ती को साफ़ किया गया। और देश को अधर्म और अन्धविश्वाश से मुक्त किया। ठाठ के साथ हर मुसलमान यह कहते हुए नहीं शरमाता।
” बेशुमार लूट मिली , कई सो हांथी कब्जे में आये , और मुस्लिम सेना ने उसके दुर्ग को भी कब्जे में ले लिया , जहाँ राय का खजाना था।
जयचंद हार गया —- मारा गया , वाराणसी का प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर असुरक्षित हो गया , मुस्लिम सेना वाराणसी की और बढ़ी , एक हजार मंदिरो को मस्जिद बना दिया गया , यह वाराणसी में उनकी दूसरी पवित्र लूट और ह्त्या थी। पहली बार मुहम्मद गजनवी की मौत के तुरंत बाद अहमद नाम के मुसलमान ने इसे लुटा था। सिर्फ औरन्जेब को ही पवित्र वाराणसी का विनाश का कारण बताना बेकार है , जिस भी मुस्लिम ने यहाँ प्रवेश किया , इस पावन नगरी के मंदिरो को तोड़कर मस्जिद बनाया ,,,
मुस्लिम सुंवरो की इस बढ़ती कतार में खुद अकबर भी है।
जब जब वाराणसी पर आक्रमण हुआ , यहब के प्रसिद्द काशी-विश्वनाथ के मंदिर को लुटा गया , मगर हिन्दुओ ने बार बार एकता दिखाकर कम से कम इस मंदिर को तो आजाद रखा ,, लेकिन कब तक —- औरन्गजेब ने इसे तोड़कर आखिर मस्जिद बना ही दिया। और यह कब तक मस्जिद बना रहता है , यह हमारी मर्दाग्नि पर निर्भर करता है।
आस पास के क्षेत्रो पर भी इन मुसलमानो अत्याचार और आतंक का नंगा नाच हुआ , इसके बाद मुहम्मद गोरी वापस गजनी लौट गया। अब तक यह कोल को जीत नहीं सके थे ,अतः पंगु मुस्लमान कुत्तूबुद्दीन ने वाराणसी से लौटते समय दुबारा इसपर आक्रमण किया , इस बार यहाँ सभी हिन्दुओ को खत्म कर दिया गया , या मुसलमान बना दिया गया
११६२ में मुहम्मद गोरी फिर भारत आया , कुत्तूबुद्दीन फिर उसकी सेना से जा मिलता है , दोनों मुसलमान मिलकर हिन्दुओ के दुर्ग बयाना को घेर लेते है , मगर यहाँ सेना से लड़ने की जगह मुसलमान ओरतो और बच्चो पर अपनी बहादुरी दिखाते है अपनी संकटग्रस्त प्रजा को बचाने के लिए कुंवर पाल आत्मसमर्पण कर देते है।
अब इन मुसलमानो का काफिला ग्वालियर की और बढ़ा , इसका शाशक सुलक्षण पाल था , इसने ऐसा संग्राम किया की गोरी का सारा गौरव चकनाचूर हो गया , उसे वापस बमुश्किल जान बचाकर भागना पड़ा , इस डूब मरने वाली हार को मुसलमान झूठे इतिहासकरो ने गाल बजाकर ढकने का प्रयास किया है , इस युद्ध के बाद गौरी तो भागकर गजनी पहुँच गया , और ऐबक दिल्ली।
प्रायः इसी समय देशभक्त हिन्दू सेना एकत्रित होने लगी थी , विदेशी मुसलमानो को ललकारा गया , पंगु चारो और से घिर गया , जीवन समाप्ति की और ही था , यहाँ से उसने सारे खलीफाओं को सन्देश भेज दिया , बहुत विशाल सेना आयी भी , किन्तु वापस एक भी नहीं लौटा , हिन्दुओ ने सभी को जमीन में गाड़ दिया , फिर जैसे तैसे कुतुबुद्दीन अपनी जान बचाकर भागा।
अन्हिलवाड़ शाशक के कुशल नेतृत्व में हिन्दू सेना फिर एकत्र हो गयी थी , फिर मुस्लिम शाशको को ललकारा गया इस बार भी जीवन लीला समाप्त होने को ही थी , की कमबख्त दिल्ली भाग खड़ा हुआ , उसने ताबड़तोड़ अपने मालिक मुहम्मद गोरी से सहायता की मांग की , गोरी का भोजन और आहार लूट ही था , कुतुबुद्दीन इसे हिंदुस्तान से इकट्ठा करके गजनी भेजता था , अतः उसने देखा की कुतुबुदीन की समाप्ति के बाद तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा , लुटेरो का एक विशाल गिरोह उसने अन्हिलवाड़ भेज दिया , आबू पर्वत के निचे संकर्रे रास्ते पर राय कर्ण और अन्य राजपूत राजाओ के अधीन एक शशक्त हिन्दू सेना तैयार थी।
उस सशक्त स्तिथि में आक्रमण करने का साहस मुसलमान नहीं बटोर सके , विशेषकर उसी स्थान पर बार बार गोरी भी बहुत बार मार खा कर गया था , अतः मारे भय के वह पीछे ही डटे रहे , तब हिन्दू सेनाओ ने अपने पर्वतीय स्थानों को छोड़ दिया, और मुस्लिम सेना उनपर टूट पड़ी , खुले मैदानों में आमने सामने की लड़ाई हुई , हमेशा की तरह मुसलमानो ने विजय का दावा किया है , परंतु इस पंक्तियों को पढ़ने के बाद पता चलता है , की मुस्लिम सेना ने हारकर अजमेर में शरण ली , और फिर दिल्ली लौट गयी।
अशिक्षित दरबारों में चक्कर काटने वाले खुशामदी लेखक मोटी रकम लेकर हार को जीत लिखने के लिए तैयार ही बैठे थे , इसलिए हम हिन्दुओ और साधारण जनता को इनके झूठ के प्रति जागरूक हो जाना चाहिए , इन लोगो का वास्तविक निर्णय स्वम् ही निकाला जाना चाहिए।
१२०२ में एक दूसरे युद्ध में पालतू गुलाम अल्ततमश के साथ कुतुबुद्दीन ने कालिंजर दुर्ग घेर लिया , यह दुर्ग परमार राजाओ की राजधानी था , सदा की भाँती चापलूस मुस्लिम इतिहासकार दावा करते है की हिन्दू राजा पराजित हुआ, और भाग गया। और कर आदि देने की संधि होने के बाद राज्य राजा को लौटा दिया गया , किन्तु आगे वह यह भी जोड़ देता है की उसने स्वाभाविक म्रत्यु पायी , और शांति संधि की किसी भी शर्त को पूरा नहीं किया। इन तथ्यों से साफ़ पता चलता है , की कालिंजर से भी कुतुबुद्दीन हार कर ही लौटा।
हालांकि हमेशा की भाँती अपनी हार की मार छिपाने के लिए पालतू मुस्लिम इतिहासकारो ने इस मुठभेड़ पर अपनी मुस्लिम जीत का रंग चढाने का पूरा प्रयास किया है।
दूसरी बार फिर बड़ी सेना लेकर इस दुर्ग पर आक्रमण हुआ , इस बार की स्थायी सेना में हजारो मुसलमानो का ही नहीं , वरन नए विदेशी मुस्लिम लुटेरो को भी भरा गया , मृत शाशक के मुख्यमंत्री अजदेव ने बड़ी वीरता से दुर्ग की रक्षा की।
बाद में दुर्ग आतंक , माया , और धोखे से कब्जे में हुआ , फिर सदा की भांति मंदिरो को मस्जिद बनाया गया , और बुतो ( देवी – प्रतिमाओ ) का नामोनिशान तक मिटा दिया , पचासहजार लोगो के गले में गुलामी का फंदा डाला गया , और हिन्दुओ के रक्त से सारी भूमि रंजित हो गयी इस तरह इस्लाम के नाम पर गुलामी के गीत गाये गए , और गुलामी के नाम पर इस्लाम की शोभा बढ़ाई गयी।
अब कुतुबुद्दीन महोबा से जा टकराया , मगर इतिहासकारो की चुप्पी से साबित होता है की वहां उन लुटेरो को काफी नुकसान का सामना करना पड़ा था , इसी प्रकार का एक प्रयास बंदायू पर भी किया गया , जो नगरो की जननी और हिन्द देश के प्रमुख नगरो में से एक था , इसलिए हिन्दुओ को बेवकूफी से भरा यह विचार दिमाग़ से एकदम निकाल देना चाहिए की इन नगरो का निर्माण मुसलमानो ने किया है , वरन इसके विपरीत मुसलमानो ने इसे नस्ट और बर्बाद ही किया है। बंदायू अभियान भी बड़ी बुरी तरीके से कुचला गया था।
इसी समय एक दूसरा मुस्लिम पिसाच कुतुबुद्दीन के गिरोह में आ मिला। वह एक शैतान लुटेरा और पालतू गुलाम था , बाद में इसी ने पूर्वी बिहार के साथ साथ नालंदा का भी नाश किया। इससे पहले इसकी हिन्दुओ की हत्या , नर-संघार , और लूट की शक्ति को नापा , और परखा गया , संतोषजनक पाने पर इसे मुहम्मद गोरी ने गुलाम गिरोह नेताओ के केबिनेट का सदश्य बना लुटेरे दल में शामिल कर दिया। ( बख्तियार खिलजी )
महोबा और बंदायू में हिन्दू तलवारो से हुए घावों को चाटता भीगी बिल्ली सा कुतुबुद्दीन दिल्ली वापस लोटा , १२०३ में भारत पर अपने घावों के क्रम को कायम रखते हुए , गजनी से चला , मार्ग में खिता की हिन्दू सेना ने इसे रोककर ललकारा , अनखुद की सीमा पर संग्राम छिड़ गया , परिणाम में गोरी को बुरी तरह कुचलकर हराया गया , वह भय से काँपता मैदान से भाग खड़ा हुआ , अपवाह तो यहाँ तक थी, की वह युद्ध में ही मारा गया , इस भगदड़ में उसने एक महत्वकांशी गुलाम ऐबक ने मौके को सुंघा , और एक टोली लेकर वह मुल्तान पहुँच गया , फिर गर्वनर के कानो में गुप्त सुचना देने के बहाने उसकी हत्या कर दी।
कुतुबुद्दीन और उसके स्वामी गौरी को कई बार भारत के वीर देशभक्त हिन्दुओ ने कई बार हराया था , अतः अब उसमे इतना साहस नहीं था , की सीधे हिन्दुओ से जा भिड़े , जब तक गोरी का सर कटकर नहीं गिरा, तब तक कुत्तूबुद्दीन गोरी का एक पालतू कुत्ता ही था ,
नवम्बर १२१० ईश्वी के प्रारंभिक दिनों में लाहौर में चौगान खेलते समय कुतुबुद्दीन घोड़े से गिर गया , घोड़े की जीन के पायदान का नुकीला भाग उसकी छाती में धंस गया , और मर गया , यह दारुन और दोगला मुस्लिम पशु एक पशु के हाथ से ही मारा गया।
No comments:
Post a Comment