स्वामी विवेकानन्द

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युवाओं के प्रेरणा स्त्रोत और हिन्दू संस्कृति का विदेशों में परचम लहराने वाले स्वामी विवेकानन्द वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु थे। वे साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकाण्ड विव्दान थे। उन्होंने जो भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेशों में बिखरे उन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। स्वामी विवेकानंद ने विश्व में हिन्दू धर्म के उत्थान में महत्वपूर्ण किरदार निभाया और राष्ट्रीयता के सिद्धांत को भारत में फैलाया। उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना की थी जो आज भी अपना काम कर रहा है।

नरेंद्र से स्वामी विवेकानन्द बनने तक का सफर ------

स्वामी विवेकानन्द का जन्म 12 जनवरी, 1863 (विद्वानों के अनुसार मकर संक्रान्ति संवत् 1920) को कलकत्ता के गौरमोहन मुखर्जी स्ट्रीट में एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ दत्त (Narendranath Datta) था। उनके पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। विवेकानंद के 9भाई-बहन थे। दुर्गाचरण दत्ता, (स्वामी विवेकानंद के दादा) संस्कृत और फारसी के विद्वान थे उन्होंने अपने परिवार को 25 की उम्र में छोड़ दिया और एक साधु बन गए। स्वामी विवेकानन्द का परिवार धनी, कुलीन और उदारता व विद्वता के लिए विख्यात था। विश्वनाथ दत्त कोलकाता उच्च न्यायालय में अटॅार्नी-एट-लॉ थे व कलकत्ता उच्च न्यायालयमें वकालत करते थे। वे एक विचारक, अति उदार, गरीबों के प्रति सहानुभूति रखने वाले, धार्मिक व सामाजिक विषयों में व्यवहारिक और रचनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले व्यक्तिथे। भुवनेश्वरी देवी सरल व अत्यंत धार्मिक महिला थीं। उनका अधिकांश समय भगवान शिव की पूजा-अर्चना में व्यतीत होता था।बचपन से ही नरेन्द्र अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के तो थे ही साथ ही नटखट भी थे। अपने साथी बच्चों के साथ वे खूब शरारत करते और मौका मिलने पर अपने अध्यापकों के साथ भी शरारत करने से नहीं चूकते थे। उनके पिता पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वे अपने पुत्र स्वामी विवेकानंद को भी अँग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढर्रे पर चलाना चाहते थे।

सन् 1871 में, आठ साल की उम्र में, नरेंद्रनाथ ने ईश्वर चंद्र विद्यासागर के मेट्रोपोलिटन संस्थान में दाखिला लिया जहाँ वे स्कूल गए। 1877 में उनका परिवार रायपुर चला गया। 1879 में, कलकत्ता में अपने परिवार की वापसी केबाद, वह एकमात्र छात्र थे जिन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज प्रवेश परीक्षा में प्रथम डिवीजन अंक प्राप्त किये। वे विभिन्न विषयो जैसे दर्शन शास्त्र, धर्म, इतिहास, सामाजिकविज्ञानं, कला और साहित्य के उत्सुक पाठक थे। हिंदु धर्मग्रंथो में भी उनकी बहुत रूचि थी जैसे वेद, उपनिषद, भगवत गीता, रामायण, महाभारत और पुराण। नरेंद्र भारतीय पारंपरिक संगीत में निपुण थे, और हमेशा शारीरिक योग, खेल और सभी गतिविधियों में सहभागी होते थे।उन्होंने General Assembly’s Institution से पश्चिमी तर्कशास्त्र, पश्चिमी दर्शनशास्त्र और यूरोपीय इतिहास का भी अध्ययन किया। 1881 में स्वामी विवेकानंद ने ललितकला की परीक्षा उत्तीर्ण की और 1884 में कला में स्नातक की डिग्री प्राप्त की। वो Herbert Spencer के विकासवाद से बहुत प्रेरित हुए और Spencer की किताब को बंगाली में अनुवाद करने के लिए उनके साथ पत्र व्यवहार करने लगे। पश्चिमी दार्शनिको को पढ़ते समय स्वामी विवेकानंद ने संस्कृत शास्त्रों और बंगाली साहित्य का भी अध्ययन किया।स्वामी विवेकानंद की बुद्धि बचपन से तीव्र थी और परमात्मा में व अध्यात्म में ध्यान था। वे हमेशा भगवान की तस्वीरों जैसे शिव, राम और सीता के सामने ध्यान लगाकर साधना करते थे। साधुओ और सन्यासियों की बाते उन्हें हमेशा प्रेरित करती रही। ईश्वर के बारे में जानने की उत्सुकता में कभी-कभी वे ऐसे प्रश्न पूछ बैठते थे कि इनकेमाता-पिता और कथावाचक पण्डितजी तक चक्कर में पड़ जाते थे।1881 में नरेंद्र एक संबंधी के सहयोग से पहली बार रामकृष्ण से मिले, जिन्होंने नरेंद्र के पिता की मृत्यु पश्च्यात मुख्य रूप से नरेंद्र पर आध्यात्मिक प्रकाश डाला। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेन्द्रदत्त को देखतेही पूछा, “क्या तुम धर्म विषयक कुछ भजन गा सकते हो?” नरेन्द्रदत्त ने कहा, “हाँ, गा सकता हूँ।” फिर स्वामी विवेकानंद ने दो-तीन भजन अपने मधुर स्वरों में गाए। उनके भजन से स्वामी परमहंस अत्यंत प्रसन्न हुए तभी से नरेन्द्रदत्त स्वामी परमहंस का सत्संग करने लगे और उनके शिष्य बन गए। बाद में वे वेदान्त मत के दृढ़ अनुयायी बन गए थे।1885 में, रामकृष्ण को गले का कैंसर हुआ, और इस वजह से उन्हें कलकत्ता जाना पड़ा और बाद में कोस्सिपोरे गार्डन जाना पड़ा। नरेंद्र और उनके अन्य साथियों ने रामकृष्ण के अंतिम दिनों में उनकी सेवा की, और साथ ही नरेंद्र की आध्यात्मिक शिक्षा भी शुरू थी। कोस्सिपोरे में नरेंद्र ने निर्विकल्प समाधी का अनुभव लिया। नरेंद्र और उनके अन्य शिष्यों ने रामकृष्ण से भगवा पोशाक लिया, तपस्वी के समान उनकी आज्ञा का पालन करते रहे। रामकृष्ण ने अपने अंतिम दिनों में उन्हें सिखाया की मनुष्य की सेवा करना ही भगवान की सबसे बड़ी पूजा है। रामकृष्ण ने नरेंद्र को अपने मठवासियो का ध्यान रखने कहा, और कहा की वे नरेंद्र को एक गुरु की तरह देखना चाहते है। और रामकृष्ण 16 अगस्त 1886 को परलोक सिधार गये।रामकृष्ण की मृत्यु के बाद उनके भक्तो और प्रशंसकों ने उनके सिद्धांतो को मानना बंद कर दिया। काफी समय तक मठ का किराया नही चूका पाने पर नरेंद्र और उसके अनुयायियों को रहने के लिए नई जगह की तलाश थी। कई अनुयायी गृहस्थ जीवन बिताने के लिए अपने अपने घर लौट गये। नरेंद्र ने बचे हुए अनुयायियो के साथ मिलकर बारानगर में एक टूटे फूटे घर को मठ में बदलने का निर्णय लिया। बरानगर मठ का किराया थोडा कम था जो वो मधुकारी से चूका देते थे।दिसम्बर 1886 में एक दिन बाबुराम की माँ ने नरेंद्र और उसके साथियो को अंतपुर गाँव में बुलाया। नरेंद्र ने न्योता स्वीकार करते हुए अंतपुर जाकर वहा पर कुछ दिन बिताये अंतपुर में क्रिसमस की शाम को नरेंद्र और उसके आठ अनुयायीयो ने साधारण मठवासी प्रतिज्ञा की। उन्होंने अपने गुरुओ की तरह रहने का फैसला किया। नरेंद्रनाथ ने यही पर अपना नाम “स्वामी विवेकानंद ” रख दिया। 1887 से 1892 के बीच स्वामी विवेकानन्द अज्ञातवास में एकान्तवास में साधनारत रहने के बाद भारत-भ्रमण पर रहे।उन्होंने गरीब बीमार लोगो के लिए सहानभूति उत्त्पन की औरराष्ट्र के उत्थान का संकल्प लिया। भिक्षा पर अपना जीवन व्यतीत करते हुए वो पैदल चले और रेल में सफर किया। अपनी यात्रा के दौरान वो सभी धर्म के लोगो से मिले और उनके साथ रहे। नरेंद्र 31 मई 1893 को “विवेकानंद” नाम के साथ बॉम्बे से शिकागो के लिए रवाना हो गये। जहा उन्होंने विश्व धर्म सम्मलेन में भारतीयों के हिंदु धर्म का प्रतिनिधित्व किया। विवेकानंद ने यूरोप, इंग्लैंड और यूनाइटेड स्टेट में हिंदु शास्त्र की 100 से भी अधिक सामाजिक और वैयक्तिक क्लासेस ली और भाषण भी दिए।

#शिकागो_धर्मसम्मेलन
विदेशों में भारतीय संस्कृति को तुच्छ और गुलाम समझा जाता था क्योंकि भारत 1000 सालों से विदेशी आक्रमणकारियों का गुलाम था ,उस समय भी अंग्रेजो की गुलामी सह् रहा था।
11 सितंबर सन 1893 को स्वामी जी का भाषण होना था वहाँ मंच पर ब्लैक बोर्ड पर लिखा हुआ था- हिन्दू धर्म – मुर्दा धर्म। कोई साधारण व्यक्ति इसे देखकर क्रोधित हो सकता था , पर स्वामी जी भला ऐसा कैसे कर सकते थे| वह बोलने के लिये खङे हुए और अपने भाषण की शुरुआत की

#भाषण
“अमेरिका के बहनो और भाइयोआपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिन्दुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता काविचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हमविश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इस्त्राइलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था। और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसेधर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी औरअभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है। भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।वर्तमान सम्मेलन जोकि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़ेहुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।”
स्वामीजी के शब्द ने जादू कर दिया, पूरी सभा नेकरतल ध्वनि से उनका स्वागत किया।इस हर्ष का कारण था, स्त्रियों को पहला स्थान देना। स्वामी जी ने सारी वसुधा को अपना कुटुबं मानकर सबका स्वागत किया था। भारतीय संस्कृति में निहित शिष्टाचार कायह तरीका किसी को न सूझा था। इस बात का अच्छा प्रभाव पङा। श्रोता मंत्र मुग्ध उनको सुनते रहे, निर्धारित 5 मिनट कब बीत गया पता ही न चला। अध्यक्ष कार्डिनल गिबन्स ने और आगे बोलने का अनुरोधकिया। स्वामीजी 20 मिनट से भी अधिक देर तक बोलते रहे|स्वामीजी की धूम सारे अमेरिका में मच गई। देखते ही देखते हजारोंलोग उनके शिष्य बन गए। और तो और, सम्मेलन में कभी शोर मचता तोयह कहकर श्रोताओं को शान्त कराया जाता कि यदि आप चुप रहेंगे तो स्वामी विवेकानंद जी का व्याख्यान सुनने का अवसर दिया जायेगा। सुनते ही सारी जनता शान्त हो कर बैठ जाती।अपने व्याख्यान से स्वामीजी ने यह सिद्ध कर दिया कि हिन्दू धर्म ही श्रेष्ठ है, जिसमें सभी धर्मो को अपने अंदर समाहित करने की क्षमता है। भारतिय संसकृति, किसी की अवमानना या निंदा नही करती। इसतरह स्वामी विवेकानंद जी ने सात समंदर पार भारतीय संसकृति की ध्वजा फहराई।

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