ईश्वर निराकार है | अर्थात वो असीमित है | अनन्त है|
उसका अपना एक आकार नही है | अनेक आकर है | उसके रोम रोम में ब्रम्हाण्ड हैं |
अर्थात निराकार का ये अर्थ नही की ईश्वर की मूर्ति नही हो सकती!
जब कण कणमें ईश्वर है तो मूर्ति में क्यो नही?
ईश्वर को ईश्वर शब्द देकर हम उसे शब्दो में ही बांध देते हैं |
#निराकार_निर्गुण_का_सही_अर्थ
लोगों में सगुण और निर्गुण उपासना के तात्पर्य को लेकर बड़ा मतभेद है। एक सामान्य सी परिभाषा लोगों के दिमाग में फिक्स है की परमात्माको निर्गुण मानकर की जाने वाली उपासना निर्गुण उपासना है, और साकार मानकर की जाने वाली उपासना सगुन उपासना। पर शायद बारीकी से सोचा जाये तो सगुन-निर्गुण का मतलबकुछ और ही है। यदि उपास्य में ज्ञान,बाल,क्रिया,शक्ति,रूप आदि कुछ माना ही ना जाये तो फिर उसकी उपासना की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसी वस्तु का क्या ध्यान किया जाये ? ऐसी शुन्य-कल्प निर्गुणवस्तुका तो निर्देशन करना भी कठिनहै। हकीकत में तो ऐसा कोई तत्व हो ही नहीं सकता जिसमें रूप,गुण आदि ना हो।
कुछ मंदबुद्धि लोगो ने इन शब्दों के अर्थों को इतनी बुरी तरह से बदल डाला कि सामान्य व्यक्ति भटक ही जाए।
इन शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या है, इस बारे में जानने के लिए शास्त्रों का ही सहारा लिया जाना चहिये।
निर् + गुण और निर् + आकार आदि समस्त पद है। व्याकरण शास्त्र के आचार्यो ने ऐसा नियम बताया है की ——
निर् आदि अव्यवों का पंचमी विभक्ति शब्दों के साथ क्रांत (अतिक्रमण) आदि अर्थों में समास होता है।
इनका विग्रह (विश्लेषण) इस प्रकार किया जाता है——- निर्गतो गुणेभ्यो यः स निर्गुणः, निर्गत आकारेभ्यो यः स निराकारः
मतलब जो सारे गुणों का अतिक्रमण कर जाये (प्रकृति के सत्व, रज, तम तीनो गुणों से लिप्त ना हो ) वही निर्गुण कहलाता है।
इसी तरह पृथ्वी आदि समस्त आकारों को जो अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता हो, अर्थात जिसका आकार अखिल ब्रह्माण्ड से भी बड़ा हो, वही निराकार कहलाता है। निर्विशेष, निर्विकल्प आदि दूसरे शब्दों का भी इसी तरह अर्थ होता है।
व्याकरण शास्त्र के इन शब्दों के उपर्युक्त अर्थ के समर्थक उदहारण भी है। जैसे-
“निस्त्रिंश:निर्गत: त्रिन्शेम्योsगुलिभ्यो यः सनिस्त्रिंश:”
अर्थात तीस अंगुल से बड़े खड्ग (तलवार) को निस्त्रिंश कहना चाहिये।
इसी तरह वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का आकार भी समस्त आकारों से बड़ा बताया गया है।
“ब्रह्मांडनिकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेदकहै।”
परमात्मा के एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित है।
“पगु बिन चलै, सुनै बिन काना….कर बिन करम करै बिधि नाना”!!
का अर्थ भी इन्ही अर्थों में है…
.शास्त्रीय प्रमाणों से जब अर्थ का सामंजस्य हो जाता है, फिर ब्रह्म को सर्वथा गुण रहित और आकार रहित कैसे माना जाये ?
इससे सिद्ध होता है कि इन सभी से यह सिद्ध होता है कि परमात्मा का गुण रहित होना भी एक
गुण है और यह भी सिद्ध कर दिया कि ईश्वर निराकार होते हुए भी उसका एक आकार है।
उसका अपना एक आकार नही है | अनेक आकर है | उसके रोम रोम में ब्रम्हाण्ड हैं |
अर्थात निराकार का ये अर्थ नही की ईश्वर की मूर्ति नही हो सकती!
जब कण कणमें ईश्वर है तो मूर्ति में क्यो नही?
ईश्वर को ईश्वर शब्द देकर हम उसे शब्दो में ही बांध देते हैं |
#निराकार_निर्गुण_का_सही_अर्थ
लोगों में सगुण और निर्गुण उपासना के तात्पर्य को लेकर बड़ा मतभेद है। एक सामान्य सी परिभाषा लोगों के दिमाग में फिक्स है की परमात्माको निर्गुण मानकर की जाने वाली उपासना निर्गुण उपासना है, और साकार मानकर की जाने वाली उपासना सगुन उपासना। पर शायद बारीकी से सोचा जाये तो सगुन-निर्गुण का मतलबकुछ और ही है। यदि उपास्य में ज्ञान,बाल,क्रिया,शक्ति,रूप आदि कुछ माना ही ना जाये तो फिर उसकी उपासना की कोई आवश्यकता ही नहीं है। ऐसी वस्तु का क्या ध्यान किया जाये ? ऐसी शुन्य-कल्प निर्गुणवस्तुका तो निर्देशन करना भी कठिनहै। हकीकत में तो ऐसा कोई तत्व हो ही नहीं सकता जिसमें रूप,गुण आदि ना हो।
कुछ मंदबुद्धि लोगो ने इन शब्दों के अर्थों को इतनी बुरी तरह से बदल डाला कि सामान्य व्यक्ति भटक ही जाए।
इन शब्दों के वास्तविक अर्थ क्या है, इस बारे में जानने के लिए शास्त्रों का ही सहारा लिया जाना चहिये।
निर् + गुण और निर् + आकार आदि समस्त पद है। व्याकरण शास्त्र के आचार्यो ने ऐसा नियम बताया है की ——
निर् आदि अव्यवों का पंचमी विभक्ति शब्दों के साथ क्रांत (अतिक्रमण) आदि अर्थों में समास होता है।
इनका विग्रह (विश्लेषण) इस प्रकार किया जाता है——- निर्गतो गुणेभ्यो यः स निर्गुणः, निर्गत आकारेभ्यो यः स निराकारः
मतलब जो सारे गुणों का अतिक्रमण कर जाये (प्रकृति के सत्व, रज, तम तीनो गुणों से लिप्त ना हो ) वही निर्गुण कहलाता है।
इसी तरह पृथ्वी आदि समस्त आकारों को जो अतिक्रमण करने की सामर्थ्य रखता हो, अर्थात जिसका आकार अखिल ब्रह्माण्ड से भी बड़ा हो, वही निराकार कहलाता है। निर्विशेष, निर्विकल्प आदि दूसरे शब्दों का भी इसी तरह अर्थ होता है।
व्याकरण शास्त्र के इन शब्दों के उपर्युक्त अर्थ के समर्थक उदहारण भी है। जैसे-
“निस्त्रिंश:निर्गत: त्रिन्शेम्योsगुलिभ्यो यः सनिस्त्रिंश:”
अर्थात तीस अंगुल से बड़े खड्ग (तलवार) को निस्त्रिंश कहना चाहिये।
इसी तरह वेदादि शास्त्रों में भी परमात्मा का आकार भी समस्त आकारों से बड़ा बताया गया है।
“ब्रह्मांडनिकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेदकहै।”
परमात्मा के एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड स्थित है।
“पगु बिन चलै, सुनै बिन काना….कर बिन करम करै बिधि नाना”!!
का अर्थ भी इन्ही अर्थों में है…
.शास्त्रीय प्रमाणों से जब अर्थ का सामंजस्य हो जाता है, फिर ब्रह्म को सर्वथा गुण रहित और आकार रहित कैसे माना जाये ?
इससे सिद्ध होता है कि इन सभी से यह सिद्ध होता है कि परमात्मा का गुण रहित होना भी एक
गुण है और यह भी सिद्ध कर दिया कि ईश्वर निराकार होते हुए भी उसका एक आकार है।
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