कुछ तथाकथित दलित चिंतकों (असल में वेटिकन के गुर्गे) का सदा से आरोप रहता है कि मंदिरों में दलितों के साथ भेदभाव किया जाता है, उन्हें मंदिर में प्रवेश नहीं मिलता. हालाँकि यह बात पहले ही सिद्ध हो चुकी है कि यह केवल दुष्प्रचार भर है, क्योंकि देश के हज़ारों मंदिरों में से इक्का-दुक्का को छोड़कर किसी भी मंदिर में घुसते समय, किसी से उसकी जाति नहीं पूछी जाती है.
मन्दिर में ऐसा कोई रजिस्टर या रसीद नहीं होती, जिसमें मंदिर में घुसते समय व्यक्ति का नाम अथवा जाति लिखनी पड़ती हो. यह तथ्य है कि मंदिरों में कोई भी आ-जा सकता है. परन्तु अब इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए देश के कई राज्यों में यह प्रयास शुरू हो गए हैं कि दलितों को मंदिरों में पुजारी भी नियुक्त किया जाए, और ऐसे प्रयास धीरे-धीरे सफल भी होने लगे हैं. इस आन्दोलन के आगे बढ़ने पर “दल-हित” चिंतकों का दूसरा नकली आरोप भी ध्वस्त हो जाएगा कि मंदिरों पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार है (जबकि वास्तविकता यह है कि देश के अधिकाँश मंदिरों से होने वाली आय पर सम्बंधित राज्य सरकार का नियंत्रण होता है, ब्राह्मणों या पुजारी का नहीं). ऐसे कई दलित पुजारियों की श्रृंखला में से एक उदाहरण आज आपके सामने पेश किया जा रहा है. यह है पटना का “महावीर हनुमान मंदिर”.
किसी भी मंदिर की तरह इस मंदिर में भी हनुमान की फूलों से सजी हुई मूर्ति के सामने बैठे दो पुजारी भक्तों के हाथों से प्रसाद ले रहे हैं, और उन्हें मूर्ति से उठाए हुए फूलों के साथ प्रसाद की टोकरी वापस कर रहे हैं. उनके सामने श्रद्धा से विनत भक्त खड़े हैं. उनके सिर श्रद्धा से झुके हुए हैं. पटना के महावीर मंदिर में किसी भी आम मंदिर के समान ही नजारा है, जहां हनुमान चालीसा, और रामायण के सुन्दर काण्ड का पाठ हो रहा है, और मंदिर की घंटियां भी बज रही हैं. आम मंदिर की तरह वहां पर भी पुजारियों के द्वारा प्रसाद और भक्तों के द्वारा पुजारी के पैर छूने के द्रश्य को बहुत आराम से देखा जा सकता है. वैसे तो यह नजारा भारत क्या संसार के हर हिन्दू मंदिर में आसानी से देखा जा सकता है. मगर अब आप सोचेंगे कि आखिर ऐसा क्या है जो इसे ख़ास बनाता है, ऐसा क्या है जो इस पर लेख लिखा जाए! यहाँ पर “अलग” है इन पुजारियों की पहचान, अलग है इन पुजारियों की जातिगत पहचान! चित्र में दिखाए गए सफेद धोती और मैचिंग उत्तरायण के साथ हैं पुजारी फलाहारी सूर्यवंशी दास. उनकी उम्र है 62 वर्ष और वे एक दलित हैं. किसी भी मंदिर में एक पंडित पुजारी के साथ दलित पुजारी का कंधे से कंधे मिलाकर पूजा कराना अपने आप में एक क्रांतिकारी कदम है. यह अपने आप में सांकेतिक ही सही मगर बहुत बड़ा बदलाव है.” ऐसा कहना है बिहार स्टेट बोर्ड ऑफ रिलीजियस ट्रस्ट के पूर्व अध्यक्ष और सेवा निवृत्त पुलिस अधिकारी आचार्य किशोर कुनाल का. तीन सौ साल पुराने मंदिर में दलित का पुजारी होना एक आश्चर्य का विषय ही है.
अपने घर से काम के लिए जाते समय मंदिर पर रोज़ अपना सर झुकाने वाले विनय अग्रवाल का कहना है कि मंदिर में आने से पहले ही मुझे इस मंदिर के पुजारियों की जातियों का पता था. जब भी मैं यहाँ आता हूँ, तो फलाहारी बाबा के पैर तो एक बार छूता ही हूँ! पुजारी सूर्यवंशी दास की आँखों में एक अधिकार और निर्भयता का भाव है और उनके अन्दर यह भी भरोसा है कि उन्हें पटना में स्वीकार कर लिया गया है और वे अब बाहरी नहीं हैं. वे कई बार यह भी कहते हैं कि ब्राह्मण विद्वान् भी उनके दर्शन के लिए खूब आते हैं.
चूंकि सूर्यवंशी दास केवल फलाहार करते हैं, इसीलिए उनका नाम फलाहारी बाबा पड़ा है, वे कहते हैं कि मैं एक महात्मा हूँ. मैंने खुद को कभी भी दलित नहीं माना. संत रामदास ने भी कहा है कि जाति-पाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे वो हरी का होई! भगवान ने कोई ऊंची और नीचे जाति नहीं बनाई है, यह सब केवल इंसानों का ही किया धरा है. दलितों के अधिकारों के लिए लड़ाई करने वाले डॉ. भीम राव आंबेडकर ने पूजापाठ के वर्चस्व को लेकर ब्राह्मण को बहुत कोसा था और उन्होंने एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के नाम से एक भाषण में पुजारियों पर टिप्पणी करते हुए काफी कुछ लिखा था, जिसे हिन्दू सुधारवादी समूह जात पात तोड़क मंडल में पढ़ा जाना था, मगर उसे अंतिम समय में उसके आपत्तिपूर्ण विचारों के कारण उनका निमंत्रण ही अस्वीकृत कर दिया था. “हिन्दू पुजारी का पेशा ऐसा है जो किसी भी संहिता में नहीं आता है. पुजारी को हमेशा ही किसी न किसी नियम के अंतर्गत लाना चाहिए. यदि इसमें सभी जातियों के लोगों का प्रतिनिधत्व होगा तो न केवल इससे लोकतंत्रीकरण होगा बल्कि इससे जातिप्रथा की कुरीति भी अंतिम साँसें लेगी.
(पूर्व पुलिस अधिकारी किशोर कुणाल)
बिहार में, इस परिवर्तन की अंगड़ाई 13 जून 1993 को होनी शुरू हुई, जब एक तीन सदस्यीय उच्च प्रतिनिधिमंडल ने दास को चुना! रामचंद्र परमहंस, बाबा गोरखनाथ धाम के महंत अवैद्यनाथ और महंत अवधकिशोर दास की उपस्थिति ने संकेत दिया, कि दास की नियुक्ति को हरी झंडी मिल चुकी है। लेकिन इस सबके पीछे थे मंदिर की देखभाल करने वाले किशोर कुणाल, जिन्होंने सामाजिक व्यवस्था को बदलने का बीड़ा उठाया, और जातिगत बंधन तोड़े. ये किशोर कुणाल ही थे, जिन्होनें मंदिर को सामाजिक बदलाव का माध्यम बनाया. किशोर कुणाल खुद व्यक्तिगत रूप से अयोध्या के संत रविदास मंदिर गए, और उनसे पटना में महावीर मंदिर के लिए पुजारी भेजने के लिए, वहां प्रमुख पुजारी से अनुरोध किया। उल्लेखनीय है कि संत रविदास पंद्रहवीं शताब्दी के भक्ति संत थे जिन्होंने भारत में एक जातिविहीन समाज का सपना देखा था। एक संत के रूप में दलित उनका आदर करते हैं और उनके नाम पर कई मंदिर बनाए गए हैं। कुणाल कहते हैं कि उन्हें यह लगा था कि ऐसी “ईशनिंदा” के कारण शायद उन्हें अयोध्या या बनारस में अपनी जान से हाथ धोना होगा, या कोई मेरे साथ मारपीट करेगा... मगर आश्चर्यजनक रूप से कुछ भी नहीं हुआ।
प्रारंभ में, रविदास मंदिर के कर्मचारियों को यह लगा कि किशोर कुणाल की कुछ राजनीतिक आकांक्षाएं हैं, और वे ये सब कुछ दलित वोट पाने के लिए कर रहे हैं। इस कारण से, उन्होंने तुरंत अपने किसी भी पुजारी को नहीं दिया, मगर कुछ दिनों के बाद दास का चयन और कई अन्य लोगों का साक्षात्कार हुआ। अब तक, किशोर कुणाल ने यहां दर्जन से अधिक मंदिरों में दलित पुजारी बनाए हैं. किशोर कुणाल ने “दलित देवो भव” नामक तीन खंडों की पुस्तक लिखी है, जो हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव और इतिहास में दलितों के मिथकों को तोडती है. शुरू-शुरू में हल्का-फुल्का विरोध था. कुछ लोगों ने कुणाल को एक दलित पुजारी की नियुक्ति के संभावित नतीजों के बारे में चेतावनी दी, लेकिन अंत में इसका परिणाम सुखद रहा। बहरहाल, बिहार अथवा महाराष्ट्र या कर्नाटक के कई मंदिरों में दलित पुजारियों की स्थापना का मतलब यह नहीं है, कि जाति अब देश या राज्य में अप्रासंगिक हो गई है, लेकिन निश्चित रूप से यह कदम जातिगत अवरोध तोड़ने की दिशा में एक छोटा कदम है.